खादी : वस्त्र नहीं, विचार की अवधारणा हो रही लुप्त
बैरिया (बलिया): 'खादी वस्त्र नहीं विचार है' की उच्च अवधारणा खादी की दुर्गति के चलते धीरे-धीरे लुप्त हो चली है। आजादी के समय और उसके बाद खादी देशभक्ति का प्रतीक था। खादी पहनने वाले को इच्जत दी जाती है। गांव व देहातों में खादी पहनने वालों की कोई कमी नहीं थी किन्तु महात्मा गांधी की प्रिय खादी को अब लोगों ने विस्मृत करना शुरू कर दिया है। अब खादी का स्थान जींस लेता जा रहा है। खादी की इस दुर्गति का मूल कारण सरकार की उदासीनता, खादी प्रबंध तंत्र की लापरवाही व खादी पहनने वालों की सोच में बदलाव को माना जा सकता है। बता दें कि खादी ही नहीं बल्कि इसे बनाने वाले गांधी आश्रम के कर्मचारियों की भी हालत खराब है। न्यूनतम वेतन पर काम करने वाले ये कर्मचारी महंगाई के इस दौर में अपने परिवार का भरण पोषण कैसे कर पाएंगे यह विचारणीय प्रश्न है। इस क्षेत्र में हर घर में चरखे चलते थे। सैकड़ों परिवारों की कमाई का मुख्य साधन कताई-बुनाई था। धीरे-धीरे इस पर भी ग्रहण लग गया। अब इक्का-दुक्का ही घर बचे होंगे जहां कताई बुनाई की जाती है। आज किसी खादी केन्द्र पर चले जाएं, न तो कहीं गांधी टोपी दिखलाई देगी न ही तकला। गांधी आश्रम के कर्मचारियों की समस्याओं पर नजर दौड़ायें तो इस भीषण महंगाई में न्यूनतम वेतन पर ही इनका गुजारा हो रहा है। श्रम विभाग ने 25 जून 1992 को गांधी आश्रम पर श्रम कानून लागू किया। भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय ने तीन नवम्बर 1992 को संस्था पर दुकान व वाणिज्य अधिनियम लागू किया। खादी विलेज इंडस्ट्रियल ऐक्ट 1952 की धारा 2 (क) के अधीन खादी को उद्योग माना गया। इसके तहत वेतन का निर्धारण किया गया व बैंकों से वेतन देने का संकल्प लिया गया। इसके बाद भी खादी कर्मचारियों को सम्बन्धित सुविधायें नहीं मिलीं। निर्धारित वेतन के स्थान पर वर्षो से चले आ रहे पुराने वेतनमान के आधार पर उन्हें तनख्वाह दिया जा रहा है। आजादी के बाद गांधी आश्रम के कर्मचारियों का वेतन केन्द्रीय कर्मचारियों के समान था इसलिए सेवा तथा शिक्षा विभाग की नौकरी को छोड़कर राष्ट्र सेवा के लिए इसमें तमाम लोगों ने शिरकत की। आज हालत यह है कि मनरेगा मजदूर भी इनसे बेहतर हैं।
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