साक्षात्कार दो
का मानना है कि अलग-अलग रागों के अलग-अलग रस, भाव और मूड होते हैं...उनकी प्रकृति अलग-अलग होती है। जबकि
का मानना है कि अलग-अलग रागों के अलग-अलग रस, भाव और मूड होते हैं...उनकी प्रकृति अलग-अलग होती है। जबकि कई कलाकार यह मानते हैं कि राग तो स्वच्छ निर्मल जल की तरह होते हैं। उनमें हम शब्द रूपी जिस रंग को घोलते हैं वे वही रंग धारण कर लेते हैं। इस विषय पर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आप क्या सोचती हैं कि-रागों को सिर्फ गाया ही नहीं जाता वाद्यों पर बजाया भी जाता है-जहा गायन की तरह शब्द मुखरित नहीं होते।
इसका हा या ना में सीधा जवाब नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि दोनों ही बातें अपनी-अपनी जगह पर सही हैं। अभी हम राग हमीर सुन रहे थे जिसे सामान्यत: श्रृंगार रस प्रधान राग माना जाता है, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती। यह भी नहीं है कि बार-बार गमध, गमध कहने से यह वीर रस प्रधान हो जाएगा। यह कलाकार और उसकी कला क्षमता पर निर्भर करता है कि इसी धैवत् को वह कितने प्रकार से प्रयुक्त करके किन-किन भावों और रसों की निष्पत्ति करता है। मैं यह भी मानती हूं कि अलग-अलग भावों-रसों को प्रकट किया जा सकता है, बशर्ते कलाकार को उसकी जानकारी हो..वह सिर्फ संगीत के व्याकरण में ही न फंसकर रह जाए, उसकी कलात्मकता और गहराई को भी पहचानने का प्रयास करे। महत्वपूर्ण यह भी है कि किस स्वर से किस भाव और किस रस की निष्पत्ति कैसे होगी, इसकी जानकारी भी कलाकारों को होनी चाहिए। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आपने सा कहा और कोई भाव या रस प्रकट हो गया। उस भाव और रस की अनुभूति आपको होनी चाहिए।
इसके साथ ही एक बात और, कार्यक्त्रम देते समय कलाकार किस मनस्थिति में है-इसका प्रभाव भी राग पर पड़ता है। अगर कलाकार उदस है, दु:खी है तो उसका प्रभाव उसकी प्रस्तुति पर पड़ेगा ही राग भले ही श्रृंगारिक हो। इसलिए, ब्लैक एंड व्हाइट में यह नहीं कहा जा सकता कि यह राग सिर्फ इस रस के लिए बना है। क्योंकि, किसी राग से किसी रस विशेष की निष्पत्ति के लिए ढेर सारे अवयवों की आवश्यकता पड़ती है, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है। दरअसल, कलाकार किसी राग को गाते-बजाते हैं-यह तो एक मूर्त, स्थूल और सामान्य बात है, लेकिन इसकी असाधारणता, अमूर्तता और सूक्ष्मता इसमें है कि अच्छे कलाकार अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग तरीके से स्वयं को ही गाते-बजाते हैं-राग तो बस माध्यम होते हैं। इसलिए उनके व्यक्तित्व और मनोदशा का प्रभाव उनकी प्रस्तुति पर पड़ना स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी। इसीलिए किसी अच्छे कलाकार द्वारा प्रस्तुत किसी एक ही राग को जब आप अलग-अलग अवसरों पर सुनेंगे तो उनसे भाव और रस की अलग-अलग धाराओं को प्रवाहित होता हुआ पाएंगे। लेकिन, रागों के चलन पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है इसलिए आप खमाज और दरबारी को एक साथ नहीं रख सकते। मालकौंस जोगिया और पीलू का अंतर समझना ही होगा हमें। क्योंकि, रागों की परिकल्पना किन्हीं अवधारणाओं के तहत ही हुई होगी।
एक बात और कहना चाहती हूं मैं। संगीत साधना के समय मैंने कई बार महसूस किया कि मैं षड्ज लगा रही हूं लेकिन वह सही ढंग से नहीं लग रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं बेसुरा गा रही थी। अर्थ यह है कि मैं षड्ज, ऋषभ या गाधार का जिस तरह से प्रयोग करना चाह रही थी उस तरह से नहीं कर पा रही थी। लेकिन, गा सुर में ही रही थी। तात्पर्य यह कि संगीत को सीखना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी उसके भावों को अनुभव करना भी है। जिस शब्द को आप गा रहे हैं जब तक उसे अनुभव नहीं करेंगे, जब तक भावनाओं के उस धरातल पर नहीं पहुंचेंगे, अनुभव की उन संकरी गलियों से नहीं गुजरेंगे तब तक शास्त्र और व्याकरण की दृष्टि से आपका संगीत शत-प्रतिशत शुद्ध होते हुए भी श्रोताओं के दिल को नहीं छू पाएगा..उनकी भावनाओं को नहीं उद्वेलित कर पाएगा...उन्हें आपकी संगीत की सुरीली दुनिया में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित नहीं करेगा। इसीलिए कहा गया है कि गाना सिर्फ गले से ही नहीं दिल से भी गाना चाहिए।
आपकी दृष्टि में अन्य घरानों की तुलना में रामपुर घराना कितना महत्वपूर्ण और उपयोगी है? और क्यों?
खयाल गायन के क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण रामपुर घराना अपना विशिष्ट स्थान बना चुका है, इसका अंदाज ही कुछ और है, आनंद ही कुछ और है। इस घराने की बंदिशों की सुंदरता, जिन तालों में ये बंदिशें निबद्ध होती हैं उन तालों की सुंदरता और उनकी आकर्षक लयकारियों की सुंदरता-इस घराने की गायकी को एक अलग आयाम प्रदान करती है। जो सिर्फ रामपुर घराने में है और कहीं नहीं। इसी प्रकार रामपुर घराने में यह अनिवार्य नहीं है कि हर राग की बढ़त एक-एक स्वर के माध्यम से हो, क्योंकि, कई राग ऐसे भी हैं जिनमें अगर एक-एक स्वर से बढ़त हो तो राग मुखरित नहीं होता है। जैसे अगर राग भूपाली की बढ़त करते हुए कोई धैवत पर बार-बार ठहरने लगे तो वह भूपाली कहा रह जाएगी? वह तो देशकार हो जाएगा। इसी प्रकार तोड़ी में तान लेते समय यह बचाना होगा कि वह तोड़ी ही रहे मुलतानी न हो जाए। इन तथ्यों पर भी रामपुर घराने में बहुत बारीकी से सोचा गया है। यहा के कलाकारों ने स्वयं को केवल गाने तक ही सीमित नहीं रखा है। रामपुर घराने में रागों की प्रकृति पर भी गंभीरता से सोचा गया है। उस्ताद मुश्ताक हुसैन खा और ठाकुर जयदेव सिंह कहते थे कि दरबारी में तान लेना क्यों जरूरी है? आजकल जिस तरह दरबारी कान्हड़ा में तानें ली जा रही हैं उससे तो दरबारी और अड़ाना का अंतर ही मिट गया है।
संगीत में शब्दों की भूमिका को आप किस रूप में देखती हैं? उन्हें कितना महत्व देती हैं?
मैं संगीत में शब्दों की भूमिका को बहुत सकारात्मक रूप में देखती हूं। इसीलिए शब्दों की सार्थकता पर जोर देती हूं। आज की अधिकाश प्रचलित लोकप्रिय बंदिशों की रचना सामंती युग में हुई थी। वह राजाओं, नवाबों का समय था। अत: कई रचनाएं उनकी इच्छा, उनके मनोरंजन को दृष्टि में रखकर रची गईं। इनमें से नि:संदेह कई रचनाओं के पद अत्यन्त उच्चकोटि के हैं तो कई रचनाओं के शब्द संयोजन अत्यन्त सतही भी हैं। कुछ रचनाएं रचनाकार और उनके संरक्षकों, आश्रयदाताओं की मनोवृतियों की परिचायक हैं। कुछ रचनाएं विशेष अवसरों पर रची गई हैं तो कई अपने आश्रयदाताओं की प्रशसा में भी। अत: इनमें से अधिकाश रचनाएं बहुत सार्थक नहीं है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारा संगीत रागदारी संगीत है इसलिए भी इस संगीत में स्वर की तुलना में शब्द को गौण माना गया है। मेरे संगीत कोष में हर तरह की रचनाएं हैं, मैंने हर तरह की बंदिशें सीखी हैं, क्योंकि मेरे गुरू ठाकुर जयदेव सिंह का कहना था कि तुम्हें जानकारी हर विधा की होनी चाहिए। तुम उसे गाओ या न गाओ लेकिन जानो जरूर। अत: मैंने हर तरह की रचनाएं सीखी हैं। अब उनका उपयोग अपनी इच्छा और आवश्यकतानुसार करती हूं। मेरे मत से आज के ज़माने में हमें सेजरिया, जेठनिया और ननदिया जैसे विषयों से ऊपर उठकर शब्दों की सुंदरता और सार्थकता पर ध्यान देना चाहिए। सामंती युग में श्रृंगारिकता के नाम पर जिस अश्लीलता को बढ़ावा मिला उससे अब हम लोगों को मुक्त होना चाहिए। रागों के समय और उनकी प्रकृति को ध्यान में रखकर शब्द रचना होनी चाहिए। साथ ही इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि खयाल में किस प्रकार के शब्द प्रयुक्त होने चाहिए और ठुमरी में किस प्रकार के? उदाहरण के लिए दरबारी कान्हड़ा जैसे राग में घर जाने दो छाड़ मोरी बैंया जैसी रचना को मैं बहुत उपयुक्त नहीं मानती। रचनाएं अर्थपूर्ण होनी चाहिए। ठाकुर जयदेव सिंह की पत्नी का जब निधन हुआ था तो उन्होंने एक रचना रची- टूट गए बीन के तार। राग नहीं नाशवान। अर्थात् सासों की डोर तो टूट गई है लेकिन आत्मा अजर-अमर है।
मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि यहा मैं सिर्फ अपना विचार रख रही हूं। न तो सही-गलत का फैसला दे रही हूं और न ही अपना विचार, अपना निर्णय किसी पर थोप रही हूं। जिस तरह जो मुझे अच्छा और उचित लगता है मैं करती हूं, ठीक उसी प्रकार जो दूसरों को अच्छा लगता है उसे करने