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दौड़ घास पर, चाह गोल्ड मेडल की

संजय कुशवाहा, इलाहाबाद : आराधना बिंद। जी हां, बीते साल इंदिरा मैराथन में इस खिलाड़ी ने महिलाओं के वर्

By JagranEdited By: Published: Mon, 27 Mar 2017 01:09 AM (IST)Updated: Mon, 27 Mar 2017 01:09 AM (IST)
दौड़ घास पर, चाह गोल्ड मेडल की
दौड़ घास पर, चाह गोल्ड मेडल की

संजय कुशवाहा, इलाहाबाद : आराधना बिंद। जी हां, बीते साल इंदिरा मैराथन में इस खिलाड़ी ने महिलाओं के वर्ग में तीसरा स्थान हासिल कर तहलका मचा दिया था। हंडिया के एक छोटे से गांव की रहने वाली आराधना ने विषम परिस्थितियों में यह कारनामा कर दिखाया। गांव की पगडंडियों पर प्रैक्टिस करने वाली आराधना शायद पहला स्थान पा लेती बशर्ते सरकार की ओर से कुछ सुविधाएं उसे मिली होतीं। घसियाले ट्रैक पर दौड़कर भला इससे ज्यादा कोई क्या ला सकता है। अब इसे विडंबना नहीं तो क्या कहा जाए कि कंपनीबाग में टहलने के लिए सिंथेटिक ट्रैक तो बन गया, पर लगातार मांग के बाद भी स्टेडियम में अभी तक सिंथेटिक ट्रैक नहीं बना। कंपनीबाग में दौड़ लगाने से भी खिलाड़ियों को मना कर दिया गया। अब ऐसे में भला गोल्ड ही चाह हम कैसे कर सकते हैं। खेल को लेकर सरकार बड़े-बड़े दावे तो करती है, पर उन सभी पर अमल शायद ही कभी किया जाता हो। खेल को लेकर सरकारी उपेक्षा ही है जिससे प्रतिभाएं चाहकर भी अपना पूरा दम नहीं दिखा पातीं। जिले के न जाने कितने खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर अपनी छाप छोड़ी है बावजूद इसके सरकार की अनदेखी जारी है। खास बात यह रही कि छाप छोड़ने वाले ज्यादातर खिलाड़ी ग्रामीण क्षेत्र से हैं। कैसे करते हैं वे अपनी तैयारी, शासन-प्रशासन में बैठे लोगों ने शायद इस बात को लेकर कभी मंथन किया हो।

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फाफामऊ के चंदापुर निवासी मो. इब्राहिम शाटपुट के राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। सोरांव के राजेश पोल वाल्ट में व‌र्ल्ड स्कूली प्रतियोगिता में खेल चुके हैं। मऊआइमा के धर्मेद्र भी पोल वाल्ट में देश का नाम रोशन कर रहे हैं। झूंसी के उमेश पाल पांच व दस हजार मीटर रेस में जूनियर नेशनल में मेडलिस्ट हैं। इसके अलावा सोरांव के अरविंद यादव भाला फेंक में नेशनल स्कूली प्रतियोगिता में मेडल जीत चुके हैं। कहने का आशय यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से इतने सारे नाम हैं जिन्होंने जिले के साथ ही अपने प्रदेश का नाम रोशन किया। बावजूद इसके सरकार खेलों को बढ़ावा देने का प्रयास नहीं कर रही।

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खंडहर में तब्दील होते जा रहे मिनी स्टेडियम

इलाहाबाद : ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक दशक पहले जिले के चार ब्लाकों में मिनी स्टेडियम बनाए गए थे। सोचा गया था कि गांवों में छिपी प्रतिभाओं को इन स्टेडियमों में प्रैक्टिस करने का मौका मिलेगा। इससे उनकी प्रतिभा निखरेगी और आगे चलकर यही खिलाड़ी देश का नाम रोशन करेंगे। चाका, हंडिया, कोरांव और शंकरगढ़ ब्लाक में 40-40 लाख लागत से स्टेडियम बनवाए गए। इसमें बड़ा मैदान तो शामिल था ही बड़े हाल भी बनवाए गए थे जहां टेबिल टेनिस जैसे खेलों की प्रैक्टिस खिलाड़ियों का करना था। शुरुआत अच्छी रही, पर धीरे धीरे इन स्टेडियमों की उपेक्षा शुरू हो गई। बात चाका ब्लाक के धनुहा गांव स्थित स्टेडियम की करें तो अब यह जर्जर खंडहर के रूप में तब्दील होता जा रहा है। मैदान में हर वक्त गंदा पानी भरा रहता है। पूछने पर बताया जाता है कि किसी डेयरी का पानी यहां जमा होता है। आसपास आवारा जानवरों की चरागाह बन गई है। स्टेडियम की बिल्डिंग में लगी खिड़कियां व अन्य सामान चोर उठा ले गए हैं। आसपास रहने वाले लोग बताते हैं कि उन्हें याद नहीं कि यहां कभी खिलाड़ियों का जमघट लगा हो। कुछ ऐसा ही हाल हंडिया, कोरांव व शंकरगढ़ में बने स्टेडियमों का भी हो गया है। इतना ही नहीं पाइका योजना में ग्रामीण क्षेत्रों में बनाए गए 250 सेंटर भी अब बदहाल हो चुके हैं। इन सेंटरों के बनाने के पीछे भी मकसद यही था कि गांव में छिपी प्रतिभाओं को आगे लाया जा सके। पूरे ढाई कराड़ खर्च किए गए थे सेंटरों को बनवाने में। 2013 में पायका योजना बंद कर दी गई जिसके बाद से आज तक सबकुछ ठप है।

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अब नहीं दिखता खेलों का दमखम

इलाहाबाद : वह समय था जब ब्लाकों में खेलकूद प्रतियोगिताएं होती थीं। इसमें तमाम गांवों के लोग विभिन्न खेलों में अपना दमखम दिखाते थे। क्रिकेट, फुटबाल से दूर इन प्रतियोगिताओं में दौड़, ऊंची कूद, भाला फेंक, गोला फेंक, वालीबाल के साथ ही कबड्डी भी शामिल हुआ करती थी। ब्लाक स्तरीय होने वाली यह प्रतियोगिताएं बीते दो साल से बंद हैं। सरकार गांव के खेलों के लिए एक पैसे नहीं दे रही है। यही कारण है कि युवा कल्याण विकास विभाग के पास अब कोई काम ही नहीं बचा है।

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एक स्टेडियम में कैसे चले काम

इलाहाबाद : इलाहाबाद ने भले ही तमाम प्रधानमंत्री व मंत्री दिए हों बावजूद इसके खेल के क्षेत्र में यहां के लिए किसी ने कुछ नहीं सोचा। म्योहाल मे बने स्पोर्टस कांपलेक्स को छोड़ दिया जाए तो फिर मदन मोहन मालवीय स्टेडियम के भरोसे हजारों खिलाड़ियों की गाड़ी घिसट रही है। बात क्रिकेट की करें तो यहां से मो. कैफ, आशीष विंस्टन जैदी, ज्ञानेंद्र पांडेय और ज्योति यादव जैसे नाम चमके जरूर, बावजूद इसके सरकारों ने ध्यान नहीं दिया। अर्से से एक बड़े स्टेडियम की मांग यहां होती रही। मालवीय स्टेडियम में आने वाले नए खिलाड़ियों को शुरुआत ट्रेनिंग तो ठीक दी जाती है, पर आगे चलकर इनकी उपेक्षा शुरू हो जाती है। पहले के मुकाबले अब सीनियर खिलाड़ियों के लिए मैचों की संख्या भी कम हो गई। अंडर 14 में अच्छा प्रदर्शन करने वाला खिलाड़ी आगे चलकर राह भटक जाता है। सुबह शाम होने वाली प्रैक्टिस में क्षमता से अधिक बच्चों को शामिल किया जाता है जिससे बच्चों को पै्रक्टिस का मौका कम मिलता है। पिचें ऐसी हैं कि यहां बड़े मैच खेले ही नहीं जा सकते। बड़े मैच के लिए मैदान के बार ड्रेसिंग रूम आदि होने चाहिए, यह सुविधा इलाहाबाद में नहीं है। हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जन्मभूमि में ही हाकी की उपेक्षा हुई है। दानिश मुज्तबा, हमजा मुज्तबा, आतिफ इदरीश, आब्दी, सुनील यादव जैसे नामचीन खिलाड़ी भी इसी जिले के हैं। बावजूद इसके इस खेल के साथ यहां न्याय नहीं हो पाया है। हाकी का कोई भी अच्छा मैदान शहर में नहीं है। एस्टोटर्फ पर प्रैक्टिस करना यहां के खिलाड़ियों के लिए सपना ही रहा। एक समय था जब शहर में भी फुटबाल की दीवानगी देखी जाती थी। पातू मजुमदार प्रतियोगिता होती थी जो कई साल पहले बंद हो गई। अब खेल को खिलाड़ी केवल शौकिया खेल रहे हैं।

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वर्जन

चाका ब्लाक में बनाए गए स्टेडियम में एक सांसद की डेयरी का पानी जमा हो रहा है। शिकायत के बाद भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसके अलावा अन्य जगहों पर भी मरम्मतीकरण के लिए बजट नहीं है। सरकार ने दो साल से युवा कल्याण विभाग को कोई बजट नहीं दिया जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली सारी प्रतियोगिताएं बंद हैं। बजट मिलने के बाद ही कुछ किया जा सकता है।

संदीप कुमार, जिला युवा कल्याण अधिकारी

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मो. कैफ जैसे खिलाड़ी यहां से निकले हैं। बावजूद इसके जिला एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट स्टेडियम के लिए तरस रहा है। मदन मोहन मालवीय स्टेडियम में सिंथेटिक ट्रैक भी बिछाए जाने की आवश्यकता है। यहां के स्पोर्टस हास्टल में रहने वाले 30 से 35 खिलाड़ी घास की टै्रक पर प्रैक्टिस करते हैं जबकि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें दौड़ने के लिए सिंथेटिक ट्रैक ही मिलते है। हाकी के लिए एक अदद एस्ट्रोटर्फ मैदान की मांग अर्से से होती आई है।

देवेश मिश्रा, क्रिकेट कोच, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

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