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जनहित जागरण...चट्टानों में पैदा कर दी राहें

जासं, इलाहाबाद : फौलादी हैं सीने अपने, फौलादी हैं बाहें, हम चाहें तो पैदा कर दें चट्टानों पर राहें।

By Edited By: Published: Fri, 19 Dec 2014 08:17 PM (IST)Updated: Fri, 19 Dec 2014 08:17 PM (IST)

जासं, इलाहाबाद : फौलादी हैं सीने अपने, फौलादी हैं बाहें, हम चाहें तो पैदा कर दें चट्टानों पर राहें। पुरानी फिल्म 'नया दौर' के इस गाने के बोल भले ही आज सुनने को कम मिलें, पर फिल्म की कहानी की झलक यमुनापार के पठारी क्षेत्र में देखने को मिल रही है। मजदूर संगठित हुए हैं, अधिकारों को लेकर। सजग हुए योजनाओं को लेकर और चैतन्य हुए हैं सामाजिक ताने बाने को लेकर। बना ली हैं पत्थर की चट्टानों में राहें। उनको यह राह दिखाई है गोविंद बल्लभ पंत संस्थान के डॉ. सुनीत सिंह ने। इन्होंने अपने जज्बे से क्षेत्र के पत्थर तोड़ने वाले हजारों हाथों में फूल खिला दिए हैं।

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लोग शिक्षित हों, संस्कारित हों, उन्हें ऐसा वातावरण मिले जिससे वे अपनी प्रतिभा के अनुसार आगे बढ़ सकें। समाज में छोटे बड़े का भेदभाव न हो, अमीर गरीब की खाई न रहे और सामाजिक रिश्ते विकसित हों। कुछ ऐसी ही सोच को लेकर पिछले 15 वर्षो से कार्य कर रहे हैं डॉ. सुनीत सिंह। पांच हजार परिवारों को साथ लेकर चलना कोई मजाक नहीं, पर डॉ. सिंह के जज्बे ने राह में आई सारी मुश्किलों को किनारे कर दिया। प्रो. सुनीत सिंह का सामाजिक सरोकारों से लगाव ही था कि आज वह यमुनापार के पाठा इलाके में जाना पहचाना नाम बन चुके हैं। पत्थर मजदूर उन्हें अपना मसीहा मानते हैं, पर वे अपने को केवल एक सामान्य इंसान कहते हैं। हजारों पत्थर मजदूरों को बंधुआपन की दासता से मुक्त करा चुके श्री सिंह के मिशन में सामाजिक सरोकार से जुड़ी बहुत सी बातें शामिल हैं। बच्चों और महिला शिक्षा से उनका विशेष लगाव है। महिलाओं और बच्चों को स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से स्वावलंबी बना रहे हैं। उन्हें उनके पैरों पर खड़े होने की सीख दे रहे हैं। चाहे वह 'बकरी बैंक' रहा हो या शंकरगढ़ के आदिवासी बच्चों का खुद का बैंक, हर जगह श्री सिंह ने मजदूरों में बचत की आदत डालने का प्रयास किया है। बिसात खाना, सब्जी की खेती, किराने की दुकान, चाय नाश्ते की दुकान, अंडे की दुकान, मुर्गी पालन, बकरी पालन आदि कार्यो के माध्यम से भी उन्होंने हजारों मजदूरों को बंधुआपन से मुक्ति दिलाई है। साहूकारों पर आश्रित रहने वाले मजदूर आज अपने पैरों पर खड़े हैं। शिक्षा और समाज का क्या रिश्ता है, वह भी जान चुके हैं।

शुक्रवार को जागरण टीम बेली अस्पताल के पीछे उनके आवास पर पहुंची तो उस समय वह अपने सहयोगियों के साथ समाज सेवा की चर्चा में तल्लीन मिले। सुशिक्षित समाज की बात चली तो बोल पड़े कि सिर्फ इसी से काम चलने वाला नहीं है बल्कि इसके लिए स्वराज की स्थापना करनी पड़ेगी। सामाजिक उद्यमिता, नए विचार और नए उद्यम होंगे तो नया समाज भी बनेगा। इसके लिए हमें सिर्फ स्कूली शिक्षा तक ही सीमित नहीं रहना होगा बल्कि उसके आगे की राह भी देखनी होगी।

श्री सिंह बताते हैं कि यमुनापार में उनकी संस्था प्रगतिवाहिनी के 250 से अधिक स्वयं सहायता समूह काम कर रहे हैं। आज मजदूरों के बच्चे स्कूल जा रहे हैं। लड़कियां सिलाई कढ़ाई के साथ फैशन डिजाइनिंग का काम सीख रही हैं। पुरुषों के साथ पत्थर तोड़ने वाली महिलाएं भी आज दूसरा काम कर रही हैं। शंकरगढ़ के बसहरा तरहार गांव में मजदूरों की लड़कियों ने तो बाकायदा पत्थरों पर फूल ही खिला दिए हैं। यही नहीं कई स्वयं सहायता समूह जो आज भी पत्थर तोड़ने का काम करते हैं, उन्हें खनन के लिए पट्टे का इंतजाम प्रो. सिंह की संस्था कराती है। संस्था द्वारा मजदूरों की खदान में साझा प्रबंधन मॉडल विकसित किया गया है। इसके अंतर्गत यह सोच विकसित की गई कि हम धरती से जितना लेंगे, उतना लौटाएंगे भी। इसी सोच के अंतर्गत पहाड़ों में बांध का निर्माण कर उसमें वर्षा का जल संरक्षित किया जाता है। संस्था का यह मॉडल आज पूरे प्रदेश खासकर सोनभद्र, बांदा आदि इलाकों में आदर्श मॉडल के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रो. सिंह बताते हैं कि उन्होंने मजदूरों को खनन में विस्फोटक पदार्थ का उपयोग करने से रोक दिया। उनके प्रयास से पाठा क्षेत्र के सैकड़ों मजूदर आज पारंपरिक औजारों से पत्थर खनन कर रहे हैं।

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