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'सम्मान पाने का हक तो मुझे भी है'

इकराम वारिस, अलीगढ़ : 'नुमाइश में मुझे भी सम्मान पाने का हक है' ये पीड़ा है रमेश चौहान (91) की। वे क

By Edited By: Published: Sat, 31 Jan 2015 02:00 AM (IST)Updated: Sat, 31 Jan 2015 02:00 AM (IST)
'सम्मान पाने का हक  तो मुझे भी है'

इकराम वारिस, अलीगढ़ : 'नुमाइश में मुझे भी सम्मान पाने का हक है' ये पीड़ा है रमेश चौहान (91) की। वे कहते हैं कि ऐसे लोगों को सम्मान दिया जाता है, जिनका नुमाइश से कुछ लेना-देना नहीं है। नुमाइश में लाल ताल उन्हीं की मेहनत का नतीजा है।

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शहर के समना पाड़ा में जन्मे रमेश मुंबई में 1945-62 तक मशहूर आर्ट डायरेक्टर मंडल सिंह के असिस्टेंट रहे। 1962 में अलीगढ़ लौट आए। नगर पालिका में प्रोडक्शन मेट की नौकरी कर ली। रमेश चौहान कहते हैं कि बात 1964 की है, नुमाइश मैदान में एक किनारे कूड़े का अंबार लगा था। तत्कालीन डीएम विनोद साहनी को किसी ने सुझाव दिया कि क्यों न यहां ताल बनाकर नौका विहार कराया जाए। डीएम को सुझाव अच्छा लगा। डीएम ने मुझे ताल बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी। फौरन, मैंने डीएम से कहा, इतना कूड़ा हटवाना उनके बस की बात नहीं है। फिर उन्होंने कूड़ा उठवाने के लिए आठ गैंग दिए। दिन-रात मेहनत के बाद तालाब का निर्माण पूरा हुआ। नगर पालिका के फालतू पड़े सामान से ताल को सजाया गया। बिजली के बल्बों से सजाया जाता था। बल्ब से ही ताल का नाम भी खिला जाता था। नरौरा से नावें मंगाई गई। नौका विहार के लिए तीन पैसे का टिकट रखा गया।

यूं नाम पड़ा लाल ताल

1964 में ताल का का उद्घाटन व समापन मंडलायुक्त आरबी लाल ने किया। तभी से इस ताल को लाल ताल के नाम से पहचान मिली। ताल को देखकर कमिश्नर ने उन्हें गले से लगा लिया।

मेरे हक को मारा गया

रमेश चौहान कहते हैं कि 1964-93 तक लाल ताल के इंचार्ज भी रहे। बावजूद इसके उन्हें वो सम्मान नहीं दिया गया, जिसके वे हकदार थे।

बलराज साहनी के साथ थी मित्रता

रमेश कहते हैं कि अपने जमाने के बेहतरीन कलाकार बलराज साहनी से मित्रता थी। बताते हैं कि उनके बनाए गए स्टूडियो में शूटिंग होती हैं।

मराठी व ¨हदी रंगकर्मी भी रहे

रमेश बताते हैं स्टेज पर वे मराठी-¨हदी नाटकों में अलग-अलग किरदार भी निभाते थे। उन्हें इसके लिए कई बार सम्मान भी मिल चुका है।


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