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पत्थरों पर उकेरी कविता दिलवाड़ा मंदिर

राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन है माउंट आबू, जो गर्मी के मौसम में पर्यटकों का पसंदीदा पर्यटन स्थल है। अगर इस मौसम में माउंट आबू जाने का प्लान बना रहे हैं, तो यहां से करीब ढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर मशहूर दिलवाड़ा मंदिर है, इसे देखना ना भूलें।

By molly.sethEdited By: Published: Thu, 04 May 2017 03:20 PM (IST)Updated: Thu, 04 May 2017 03:20 PM (IST)
पत्थरों पर उकेरी कविता दिलवाड़ा मंदिर

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर

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अरावली की पहाड़ियों में प्राकृतिक सौंदर्य को समेटे माउंट आबू राजस्थान का एक पर्वतीय क्षेत्र और लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। एक ओर यदि पहाड़ी की हरीतिमा पर्यटकों को आकर्षित करती है, तो दूसरी तरफ दिलवाड़ा मंदिर, स्थापत्य कला के बेजोड़ प्रतीक के रूप में यहां विद्यमान है। आबू पर्वत समुद्र तल से लगभग 1219 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। माउंट आबू से लगभग ढाई किलोमीटर की दूरी पर दिलवाड़ा गांव में सफेद संगमरमर पर सूक्ष्म कलात्मक खुदाई के लिए जग प्रसिद्ध दिलवाड़ा जैन मंदिर भारतीय संस्कृति की धरोहर है।  पांच मंदिरों का यह पुंज आगामी पीढ़ियों के लिए एक उत्कृष्ट उपहार है। 

इतिहास 

ऐसा कहा जाता है कि चक्रवर्ती सम्राट भरत ने यहां आदिनाथ का मंदिर बनवाया था। प्राचीन पुस्तकों में इसे अर्बुदाचल व अर्बुदागिरी कहते हैं। अंतिम तीर्थंकर महावीर ने भी इस स्थान पर पदार्पण किया था। वर्तमान में स्थित यहां का सबसे प्राचीन मंदिर मंत्री विमलशाह द्वारा 11वीं सदी में निर्मित हुआ था। कहा जाता है कि विमलशाह को एक चंपक वृक्ष के पास यहां भू-गर्भ से आदिनाथ की प्राचीन प्रतिमा प्राप्त हुई थी, जो लगभग 2500 वर्ष प्राचीन बताई जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि यहां प्राचीन काल में जैन मंदिर थे। विमलशाह ने इस मंदिर के निर्माण के लिए तत्कालीन सामंत धुंधुराज से जमीन प्राप्त करने के लिए जमीन पर सोने की मोहरें बिछाकर जमीन की खरीद की थी। इस मंदिर को विमलशाही कहते हैं। इसे बनवाने में 14 वर्ष लगे। इसमें 1500 कारीगरों एवं 1200 मजदूरों ने कार्य किया। 

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अन्य दर्शनीय मंदिर 

दिलवाड़ा मंदिर के अतिरिक्त यहां 4 और मंदिर हैं, जिन्हें लूणवशाही, ऋषभदेव मंदिर, पार्श्‍वनाथ और महावीर स्वामी के मंदिर कहते हैं। विमलशाही मंदिर बनने के लगभग 200 वर्षों बाद वस्तुपाल व तेजपाल ने विमलशाही मंदिर के सामने ही भव्य मंदिर बनवाया। मंदिर का नाम अपने छोटे भाई लूणवशाही के नाम पर रखा। इस मंदिर में नेमिनाथ की मूर्ति है। यह दोनों मंदिर 11वीं से 13वीं शताब्दी के मध्य के हैं। इनके अतिरिक्त और तीनों मंदिर 15वीं शताब्दी के बने माने जाते हैं। 

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मंदिरों की कला और सौंदर्य 

दिलवाड़ा मंदिरों का सादगी युक्त प्रवेश द्वार दर्शकों के सामने एक प्रश्न खड़ा कर देता है कि क्या यही जगप्रसिद्ध मंदिर हैं, जिसे देखने आए हैं? बाहर से सब-कुछ साधारण दिखाई देता है, पर जैसे ही प्रवेश द्वार से अंदर जाते हैं मंदिर का सौंदर्य देखकर एक क्षण तो स्तब्ध रह जाते हैं। विमलशाही मंदिर की छत, गुंबदों, दरवाजों, स्तभों, तोरणों पर अद्भुत नक्काशी दिखाई देती है। एक बड़ा कक्ष है जिसे रंगमंडप कहते हैं। इसमें 48 नक्काशीदार खंभे हैं, जो एक-दूसरे से नक्काशीदार मेहराबों से जुड़े हैं। मंडप के बीच में मूर्तियां हैं। नक्काशीदार मेहराब और बीच का गुंबद ही कारीगरी का प्रसिद्ध नमूना है। मंडप के आगे 140 फीट लंबा और 110 फीट चौड़ा आंगन है। आंगन के आसपास 52 खंभों पर मूर्तियां तराशी गई हैं। मंदिर 30 मीटर लंबा और 10 मीटर चौड़ा है। इस मंदिर के प्रांगण के मध्य में बने 59 देवरियों के मंडपों की छतों, गुंबदों, तोरणों, स्तंभों और दीवारों पर देवी-देवताओं, वृक्षलताओं, पुष्पों, तीर्थंकरों आदि के दृश्य कलात्मक ढंग से तराशे गए हैं। इसके अतिरिक्त जैन कथा प्रसंगों व यक्ष-यक्षिणियों आदि के भव्यभावों को पाषाण में उतार मानो कविता लिख दी गई हो। अष्टकोणीय खंभों, मेहराबों और छतों पर उकेरे गए इस कला संसार की मनोहर छटा देखते ही बनती है। 

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पत्‍थर पर जीवंत हुई कला

लूणवशाही मंदिर में भी प्रस्तर पर उत्कीर्ण कला बड़ी जीवंत है। इस मंदिर के मंडप के मुख्य दरवाजे के बाहर 9 चौकों में 2 गोखंडे हैं।  इसमें 52 देवरियां हैं। छतों पर उस समय के प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा के सुंदर दृश्य उकेरे गए हैं। गुंबद में जैन तीर्थंकरों, जैन मुनियों और कृष्ण जन्म के दृश्य अंकित हैं। आदिनाथ के मंदिर से यह मंदिर छोटा है पर इसका शिल्प सौंदर्य अद्भुत है। ऋषभ देव, पार्श्‍वनाथ व महावीर स्वामी के मंदिर भी कला में पीछे नहीं हैं। इनमें से पार्श्‍वनाथ का मंदिर दिलवाड़ा मंदिरों के कारीगरों ने अपने खर्च से अपने खाली समय में बनाया था। इन मंदिरों की शिल्प शैली अपने आप में अनूठी है। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टाड ने मुक्त कंठ से इनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि ये कलाकृतियां अनुपम हैं। ये मंदिर भारतीय संस्कृति की धरोहर हैं। इन मंदिरों से आबू पर्वत को वह मोहकता और महत्व मिलता है, जो पहाड़ी स्थलों के इतिहास में अपूर्व है। टकटकी लगाते दर्शक मंदिरों की जीवंत कला को कभी भूल नहीं पाते। 

कैसे पहुचें 

यहां पहुंचने के लिए रेल व बस सेवाएं उपलब्ध हैं। वायु-मार्ग से जाने पर उदयपुर उतरना पड़ता है। उदयपुर से माउंट आबू की दूरी करीब 164 किलोमीटर है। यहां से माउंट आबू के लिए बस व टैक्सी की अच्छी सुविधाएं हैं। 

प्रस्‍तुति: डॉ. उषा अरोड़ा  


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