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माई डार्लिग दार्जिलिंग

By Edited By: Published: Wed, 10 Oct 2012 07:11 PM (IST)Updated: Wed, 10 Oct 2012 07:11 PM (IST)
माई डार्लिग दार्जिलिंग

[ओमप्रकाश मंजुल]। छह माह पूर्व ही, जाने-आने के दो दिनों को निकाल दें, तो नौ दिन के भ्रमण का मौका मिला। संयोग से हमारे भ्रमण दल में नौ सैलानी ही शामिल थे। हमने यात्रा में नौ दिन चले अढ़ाई कोस, कहावत को भी गलत सिद्ध कर दिया। हमने इन नौ दिनों में अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम की सीमाओं को छूते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, झारखंड, बंगाल, असम व छत्तीसगढ़ यानी कुल नौ प्रांतों की यात्रा की। कई अनुभवों के बाद दार्जिलिंग जाने के लिए हमारा दल न्यूजलपाईगुड़ी स्टेशन पर उतरा। नए प्रतीक्षालय के पास वाले प्लेटफार्म की धुली-उजली सी चाय की गुमटी पर शांति व स्वच्छता ने इतना आकर्षित किया कि एक साथ दो चाय पीने का मन हुआ। मनमाफिक माहौल और सुहाने सफर की शुरुआत से दार्जिलिंग भ्रमण का हमारा मिशन सही दिशा में बढ़ता लग रहा था। दार्जिलिंग के लिए हमने जो टाटा सूमो किराये पर ली थी, उसका ड्राइवर राजेश मूलरूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला का निकला। थोड़े ही समय में वह हम लोगों से खूब घुल-मिल गया। उसने बताया कि उसके इंजीनियर पिता सेवानिवृत्ति के बाद गिरमिटिया की तरह यहां आ गए और फिर यहीं के होकर रह गए। न्यूजलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग तक का सड़क मार्ग अति आकर्षक है। शायद इसी को च्सुहाना सफर और ये मौसम हंसी कहा-गाया जाता है। सड़क के दोनों ओर खड़े इलायची, बाँस, केवड़ा, सुपारी, नारियल, चीड़ और धूप के पतले और लंबे पेड़ हमारी इंद्रियों को ही नहीं, मन व आत्मा तक को अभिभूत कर रहे थे। सूरजमुखी सरीखे जंगली फूलों की झाडि़यां रास्ते की शोभा को अलग से बढ़ा रही थीं। पहाड़ी मार्ग पर दोनों ओर दूर तक फैले चाय के बागानों को जब पहली बार देखा, तो दिल बाग-बाग हो गया। वहां के निवासियों ने बताया कि जैसे मैदानों में एक बार गन्ना बोने के बाद गन्ने की 4-5 फसलें तक काटी जाती हैं, उसी प्रकार चाय के बागान से 7-8 सालों तक चाय की पत्तियां चुनी जाती हैं। दार्जिलिंग तक सारे रास्ते में दोनों और दुकानें हैं, इनमें ऊनी वस्त्रों के साथ ही दैनिक उपयोग के फैंसी एवं कलात्मक आइटम होते है। सैलानियों को दुकानदार कीमतें काफी ऊंची बोलते है इसलिए मोलभाव जरूरी है। अलबत्ता इन दुकानदारों का व्यवहार बहुत ही नम्र और स्नेहपूर्ण होता है। यहां का एक खास आकर्षण छोटी लाइन की टॉयट्रेन भी है। इसकी पटरी आधा-पौन मीटर के बीच होती है, इसमें डिब्बे भी बहुत कम होते हैं और चलती भी बहुत धीमे है। यह सैलानियों के लुत्फ लेने के लिए ही है। घूम के निकट पार्क में लगी दूरबीन से चीन की सीमा पर दूर तक फैली हिमाच्छादित पर्वत माला को स्पष्ट देखा जा सकता है। हम लोगों ने जब यह नजारा देखा, तो मन आनंद से झूम उठा। राजेश ने रास्ते की सुंदरता का सेवन कराते हुए अंत में दार्जिलिंग के एक उच्च शिखर, टाइगर हिल से 13 किलोमीटर दूर गाड़ी को रोक दिया। यहां से पूर्वोत्तर में फैली हिमाच्छादित कंचनजंगा पर्वतमाला साफ नजर आती है। यहां पर चाय की 3-4 गुमटियां थीं जिनमें हंसती-मुस्कुराती युवतियां पर्यटकों को चाय पिला भी रही थीं और चाय की पत्तियां बेच भी रही थीं। उनकी मुस्कुराहट के झांसे में हमने भी एक-एक किलो चाय की पत्ती ले ली। लेकिन यहां चाय हमेशा भरोसेमंद जगहों से ही लेनी चाहिए। नीचे घाटी के चाय बागानों में परंपरागत रंग-बिरंगी पोशाकें पहने सैलानी सिर से बंधी टोकरियों में चाय की पत्तियां चुनते-चुनते फोटो खिंचा रहे थे। यहां के प्रसिद्ध वशिष्ठ मंदिर और नवग्रह मंदिर में भी हम लोग गए। वशिष्ठ मंदिर के निकट स्फटिक सा निर्मल जल वाला निर्झर बहता है। पर मंदिर का रख-रखाव संतोषजनक न लगा। ज्योतिष व वेध की आधारशिला पर निर्मित नवग्रह मंदिर जब हम पहुंचे, तो शाम के 8 बज रहे थे। मंदिर के कपाट बंद ही होने वाले थे, पर सौभाग्यवश हम लोगों को दर्शन लाभ हो गए। दार्जिलिंग में शाकाहार के लिए अवश्य हमें काफी हंटिंग करनी पड़ी। अंतत: एक मारवाड़ी भोजनालय मिल ही गया। इसके मालिक सज्जन थे। उन्होंने पर्याप्त सेवाभाव से हम लोगों को ताजा देशी घी के साथ, भोजन कराया। उनके चेहरे पर दिव्यता थी, जिसे देखने पर लग रहा था मानो उनके यहां भोजन करके हमने उन पर बड़ी कृपा की हो। मुकर्जी मार्ग कोलकाता स्थित बलवंत फूडिंग हाउस पर भोजनोपरांत उसके मालिक से मैंने मजाक में पूछा कि आप थाली में एक बार में ही इतना अधिक चावल क्यों परसवा देते हैं। वे होंठ को काटकर मंदमुस्कान के साथ बोले कि भाई साहब! यहां आने वाले बंगालियों को तो हम इसका तीन गुना ज्यादा परोसते हैं। पूर्वोत्तर के हर होटल में मुख्य रूप से चावल ही मिलता है। लौटते हुए जब हमारी ट्रेन ने उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया तो लगा जैसे हम स्वर्ग से नरक में फेंक दिए गए हों। रेल में हमने जब उत्तर प्रदेश की कंगाली और बदहाली का रोना रोया, तो दूसरे यात्री भी चर्चा में शामिल हो गए। अहसास हो गया कि दार्जिलिंग का सुहाना सफर अब संपन्न हुआ। गया में फाल्गु नदी के तट पर पितरों को पिण्डदान करके विष्णु पाद मंदिर में विष्णु के पद-कमलों के दर्शन किए। बोधगया में हमने चित्ताकर्षक शांति पाई और बिहार का सर्वाधिक महंगा भोजन भी। लेकिन पटना के स्टेशन से सटे हनुमान मंदिर की बगल में हमने मात्र 15 रुपये में अच्छा पेटभर भोजन किया। कोलकाता में गंगा घाट व दक्षिणेश्वर मंदिर में काली के और गुवाहाटी में कामाख्या देवी के दर्शन किए। गंगाघाट स्थित काली मंदिर व कामाख्या देवी मंदिर में भैंसों व मेढ़ों की बलि को देखकर लगा कि इन स्थानों पर पंडों की अवैध सरकारों का शासन है। उसी कोलकाता में दक्षिणेश्वर जैसे मंदिर भी हैं, जहां की काली न किसी का चढ़ावा लेती हैं, न ही किसी का प्राण, बल्कि यहां दर्शनार्थियों को नि:शुल्क प्रसाद वितरित किया जाता है। मंदिर के समक्ष ही, जिस चबूतरे पर बैठकर रामकृष्ण परमहंस ध्यान किया करते थे, वहां मैं कुछ मिनटों तक बैठा तो अलौकिक शांति की अनुभूति हुई।

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