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मनुष्य अभी तक जन्म और मृत्यु का ही रहस्य नहीं समझ पाया है

जो व्यक्ति अपना उत्थान या आत्म-कल्याण नहीं कर सकता, वह परिवार का कल्याण, समाज का कल्याण और राष्ट्र का कल्याण कदापि नहीं कर सकता।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 14 Oct 2016 09:57 AM (IST)Updated: Fri, 14 Oct 2016 10:01 AM (IST)
मनुष्य अभी तक जन्म और मृत्यु का ही रहस्य नहीं समझ पाया है

ऊंचाई विकास का प्रतीक है। ऊपर उठने का अर्थ है दृष्टि बदल जाना। नीचे रहने पर जो चीजें हमें लुभाती हैं और हमारे लिए बहुत बड़ी होती हैं, जैसे-जैसे ऊपर उठते जाएं, वे छोटी और अनाकर्षक होती जाती हैं। कभी वायुयान की खिड़की से नीचे देखें, तो बड़े-बड़े महल माचिस की डिब्बी जैसे लगते हैं, आलीशान कारें चीटियों-सी रेंगती नजर आती हैं। लोग बिंदु जैसे दिखते हैं।
ऊंचे उठने पर हमें यह भी अहसास होता है कि हमारे पैरों तले कोई आधार नहीं है और जीवन का कोई भरोसा नहीं। अधिक ऊपर चले जाएं तो नीचे एक शून्य के दर्शन होते हैं और तीव्र विरक्ति पैदा होती है। यह शून्य ही वास्तविकता है, किंतु हम इसे मानने को तैयार नहीं हैं। ऊपर उठने के बाद हमें ऊपर की विशालता और सुंदरता का भी ज्ञान होता है। जिसे हमने अपनी दुनिया समझ रखा था, वह वास्तव में व्यापक रचना का बिंदु मात्र है। जिसे हम सुंदर मान कर मोहित हो रहे थे, वह सुंदरता का आभास है।
व्यापक और वास्तविक सुंदरता तो तब नजर आती है, जब हम समदृष्टि से पूरे ब्रrांड को एकबारगी देख पाते हैं। नीचे रह के हमारी देखने की क्षमता संकुचित हो जाती है और जो कुछ हमें दिख रहा होता है, उसे ही सच और सुंदर मान लेने के अतिरिक्त हमारे पास और कोई विकल्प नहीं होता। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि जितना हम देख पा रहे हैं, दुनिया उसके आगे नहीं है। देखने, सुनने और समझने की हमारी सीमाएं हैं। यह भी तय है कि सच अपार और अनंत है। यदि ऐसा न होता, तो नित नई खोजें, नई जानकारियां हमें विस्मित न करती रहतीं। ऋषियों, मुनियों, धर्मात्माओं ने ऊंचे उठकर नए अनुभव हासिल किए, जिनमें से कुछ उन्होंने संसार के साथ बांटे भी। इसके बावजूद हमारा ज्ञान अति अल्प है। मनुष्य अभी तक जन्म और मृत्यु का ही रहस्य नहीं समझ पाया है। यदि निश्चित और अंतिम कुछ नहीं है तो मनुष्य स्वयं को ज्ञानी कैसे कह सकता है? हमारी समस्या है कि हमने निकटता वहां पैदा कर ली है, जहां दूरी होनी चाहिए। इससे हम वहां से दूर हो गए हैं, जहां हमें पहुंचना था। हम अपनी समझ के बनाए गए बुलबुले में कैद हो कर रह गए हैं। इससे बाहर आना ही ऊपर उठना है। तभी हम अपना उत्थान कर सकते हैं। सच तो यह है कि जो व्यक्ति अपना उत्थान या आत्म-कल्याण नहीं कर सकता, वह परिवार का कल्याण, समाज का कल्याण और राष्ट्र का कल्याण कदापि नहीं कर सकता।


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