जीवन का असली मर्म
कहते हैं कि जीवन का आरंभ अपने रोने, जबकि अंत दूसरों के रोने से होता है और इस आरंभ और अंत के बीच का समय भरपूर हास्य और प्रेम से भरा होना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि यही सच्चा जीवन है। दरअसल जीवन एक लंबी यात्र के समान है, इसलिए इसमें
कहते हैं कि जीवन का आरंभ अपने रोने, जबकि अंत दूसरों के रोने से होता है और इस आरंभ और अंत के बीच का समय भरपूर हास्य और प्रेम से भरा होना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि यही सच्चा जीवन है। दरअसल जीवन एक लंबी यात्र के समान है, इसलिए इसमें अवरोध आने स्वभाविक हैं, लेकिन ऐसे में कुछ लोग बुरी तरह घबरा जाते हैं और प्रेम-हास्य में भरा जीवन उन्हें दुखदायी लगने लगता है। वे ईश्वर को भला-बुरा कहने लगते हैं, लेकिन जब वे संकट से उबर जाते हैं तब उन्हें जीवन का असली मर्म समझ में आता है।
एक बार रामकृष्ण परमहंस के गले में नासूर हो गया तो उनके शिष्य बोले कि यदि वे अपने मन को एकाग्र करके यह कहें कि ‘रोग चला जा’ तो उनका रोग मिट जाएगा। इस पर रामकृष्ण परमहंस बोले, जो हृदय मुङो मां का स्मरण करने के लिए मिला है उसे मैं सांसारिक काम में क्यों लगाऊं। उनकेशिष्यों ने उनसे आग्रह किया कि आप मां को ही कह दें कि वह आपको रोग मुक्त करें। रामकृष्ण परमहंस मुस्कुराते हुए बोले कि मैं ऐसी मूर्खता क्यों करूं। मां तो दयामयी, सर्वज्ञ और सर्व-समर्थ हैं। उन्हें मेरे कल्याण के लिए जो उचित लगेगा, वे वही करेंगी। मैं उनके कार्य में बाधा क्यों डालूं। शिष्यों के पास उनके इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था।
दरअसल हमें जीवन में छोटी-छोटी बातों पर हतोत्साहित होने के बजाय अपने और परमात्मा पर विश्वास करना सीखना चाहिए। कभी किसी बच्चे को डराने का विनोद करने के लिए हम अपना चेहरा डरावना बना लेते हैं, उसी तरह ईश्वर भी हमारे साथ विनोद करता है। इसका मतलब यह है कि बच्चे भयावह परिस्थितियों का मुकाबला कर सकें और उनकी डरने की आदत छूट जाए। इसलिए हमें भी जीवन की विपरीत परिस्थितियों से डरने के बजाय कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करना चाहिए। हम सभी समय-समय पर द्वेष, क्रोध, भय, ईष्र्या के कारण दुखी होते हैं। इस वजह से हम औरों को भी दुखी बनाते हैं और इस तरह हमारे आसपास का पूरा माहौल नकारात्मक हो जाता है। इसके बाद हम जीवन से निराश होने लगते हैं।