गुरु एक प्रभाव है
'गुरु' शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- 'गु' और 'रु' से। 'गु' शब्द का अर्थ होता है- अंधकार तथा 'रु' का अर्थ है- तेज, प्रकाश। इस प्रकार 'गुरु' शब्द का अर्थ हुआ, वह व्यक्ति, जो अपने तेज से, अपने प्रकाश से सामने वाले के अज्ञान के अंधकार को दूर कर सके। कई ऐसे लोग होते हैं, जिन पर जीते-जा
'गुरु' शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- 'गु' और 'रु' से। 'गु' शब्द का अर्थ होता है- अंधकार तथा 'रु' का अर्थ है- तेज, प्रकाश। इस प्रकार 'गुरु' शब्द का अर्थ हुआ, वह व्यक्ति, जो अपने तेज से, अपने प्रकाश से सामने वाले के अज्ञान के अंधकार को दूर कर सके। कई ऐसे लोग होते हैं, जिन पर जीते-जागते गुरुओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जबकि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन पर मि˜ी के बने हुए पुतले का भी प्रभाव पड़ जाता है। एकलव्य ने मि˜ी के गुरु द्रोणाचार्य बनाए और अद्भुत बात यह कि उस मूर्ति के सामने तीरंदाजी करते-करते वह उस समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन गया।
लोग सिखाने के बाद भी नहीं सीख पाते, एकलव्य बिन सिखाए ही सब सीख गया। एकलव्य को उसके स्वयं के भाव ने सिखाया था। उस भाव ने, जो गुरु द्रोणाचार्य के प्रति उसके मन में था। इसी भाव को गुरु-तत्व कहते हैं, जो हर व्यक्ति के भीतर होता है। इसलिए यदि हमारे मन में यह भाव है, तो कोई भी कुछ भी सीख सकता है। यदि भाव नहीं है, तो गुरु बृहस्पति तक कुछ नहीं कर सकते। सीखने वाला चाहिए, सिखाने वालों की कमी नहीं है। दत्तात्रेय ने तो चैबीस गुरु बनाए, वे थे - मधुमक्खी, कबूतर, मछली, हाथी, चील, बच्चा और वेश्या आदि। जाहिर है कि दत्तात्रेय जहां-जहां गए, वहां-वहां सीखे, क्योंकि उनमें सीखने का भाव था। और उन्होंने जिससे भी सीखा, उसे गुरु मान लिया।
गुरु की महिमा सबसे ज्यादा 'हनुमान चालीसा' में मिलती है। उसके अंत में भक्त कहता है कि 'कृपा करौ गुरुदेव की नाईं।' यानी कि मुझ पर गुरु की तरह कृपा करो। हनुमान के गुरु सूर्य थे। कवि तुलसीदास द्वारा यह याचना सूर्य जैसे तेजस्वी, ऊर्जावान एवं निरंतर गतिशील रहने वाले गुरु के विलक्षण शिष्य हनुमान जी से की गई है। कहने का भाव यही है कि 'हे केसरीनंदन, मेरी चेतना को प्रखर बनाओ और कृपा करके उसे निरंतर प्रखर बनाए रखना। यदि आप इतना करते रहे, तो शेष तो मैं स्वयं कर लूंगा।'
गुरु पूर्णिमा अपने अंदर ऐसे ही किसी गुरु के प्रभाव को आत्मसात करने के लिए अपने अंदर भाव उत्पन्न करने का दिन है।