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समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है 'परमार्थ'

मनुष्य और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश हैं। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का स्थायित्व संभव ही नहीं है। दोनों में आपसी सहयोग परमावश्यक है। मनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं रह सकता। इसे हम मानव शरीर के उदाहरण द्वारा उचित तरीके से समझ सकते हैं। शरीर के

By Edited By: Published: Wed, 23 Apr 2014 11:31 AM (IST)Updated: Wed, 23 Apr 2014 11:39 AM (IST)
समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है 'परमार्थ'

मनुष्य और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश हैं। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का स्थायित्व संभव ही नहीं है। दोनों में आपसी सहयोग परमावश्यक है। मनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं रह सकता। इसे हम मानव शरीर के उदाहरण द्वारा उचित तरीके से समझ सकते हैं।
शरीर के विभिन्न अंग यदि अपना काम करना छोड़ दें तो वह शिथिल और जर्जर हो जाएगा। शरीर को स्वस्थ व सुदृढ़ बनाने के लिए प्रत्येक अंग का कार्यरत और क्रियाशील होना जरूरी है। ठीक यही स्थिति समाज के लिए आवश्यक है। समाज को समुचित स्थिति में रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य में अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए क्रियाशीलता अपेक्षित होती है। विभिन्न अंगों के पृथक ढंग से कार्य करने पर असहयोग की स्थिति उत्पन्न होगी। उस समय शरीर की दशा अत्यंत शोचनीय हो जाएगी। शरीर एक मशीन की भांति है, एक भी पुर्जा गड़बड़ हुआ तो सारी मशीन बिगड़ जाती है। व्यक्ति का स्वार्थमय जीवन भी समाज के लिए अत्यंत दुखदायी है। इस स्थिति में समाज का सदस्य सुखी नहीं रह सकता।
समाज में शक्ति संपन्नता और उसका विकास पूर्णतया असंभव है। यदि किसी मनुष्य ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया, किंतु उससे समाज को कोई लाभ न मिला तो उसकी समस्त उपलब्धियां व्यर्थ हैं। स्वार्थी और संकुचित व्यक्ति समाज का शोषण और अहित करते हैं। इस तरह के व्यक्ति समाज के शत्रु होते हैं, जो निरंतर असहयोग की दुर्भावना फैलाते रहते हैं और समस्याएं खड़ी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं। ऐसे लोग अविश्वसनीय, संदेहास्पद, झगड़ालू प्रवृत्ति के होते हैं।
सुखी-संपन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है जब मनुष्य व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बने। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बनें। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। समाज में पारस्परिक सहानुभूति प्रेमभावना, उदारता सेवा और संगठन की भावनाएं अत्यंत आवश्यक हैं। इन्हीं से समाज का विकास और समृद्धि संभव है। समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है 'परमार्थ'। समाज के जरूरतमन्द और निराश्रित व्यक्तियों की सेवा-सुश्रषा करना एक महान कर्तव्य और दायित्व होना चाहिए।


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