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शरीर आत्मा का वाहन है

शास्त्रों में परमात्मा का निवास आत्मा में माना जाता है, क्योंकि परमात्मा आत्मा का विस्तार है और आत्मा परमात्मा का संकुचित स्वरूप है। जो लोग आत्मा के निवास स्थान शरीर को पर्याप्त महत्व नहीं देते वे बहुत बड़ी हिंसा करते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी को नष्ट करने का प्रयास करना, जबकि शरीर आत्मा का वाहन है। अगर शर

By Edited By: Published: Mon, 27 Oct 2014 11:34 AM (IST)Updated: Mon, 27 Oct 2014 11:35 AM (IST)
शरीर आत्मा का वाहन है
शरीर आत्मा का वाहन है

शास्त्रों में परमात्मा का निवास आत्मा में माना जाता है, क्योंकि परमात्मा आत्मा का विस्तार है और आत्मा परमात्मा का संकुचित स्वरूप है। जो लोग आत्मा के निवास स्थान शरीर को पर्याप्त महत्व नहीं देते वे बहुत बड़ी हिंसा करते हैं।
ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी को नष्ट करने का प्रयास करना, जबकि शरीर आत्मा का वाहन है। अगर शरीर स्वस्थ है तो उसमें स्वस्थ आत्मा का निवास होता है। शरीर बीमार है, तो वह सही ढंग से काम नहीं कर सकता। जब शरीर विकृतियों से भर जाए तो उस शरीर से कोई सुकृति नहीं हो सकती। इसीलिए साधकों को काम, क्त्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से बचने का परामर्श दिया जाता है। क्योंकि ये षड्विकार मनुष्य को रुग्ण बनाते हैं और रुग्ण मनुष्य कभी-भी परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता। परमात्मा के चिंतन का अर्थ है उस परमात्म तत्व को धारण करना और उस तत्व का बोधत्व प्राप्त करना।
परमात्मा द्वारा निर्मित यह सारा ब्रह्मांड परमात्मा का मूर्त प्रत्यक्षीकरण है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, तारे, औषधि, वनस्पति, पुष्प, फल इत्यादि ब्रह्म की विभिन्न स्वरूपों में अभिव्यक्ति हैं। जब हम इन तमाम वस्तुओं से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं, तब हमें ब्रह्म की अनुभूति होती है, यही अनुभूति सिद्धि की अवस्था है।
लोगों को अपने दिन का कार्यक्रम प्रात:काल के लाल सूर्य से शुरू करना चाहिए। सूर्य की प्रथम किरण को आंख के माध्यम से मस्तिष्क में उतारें और धीरे-धीरे उस विराट प्रकाश को अंतमरुखी होकर शरीर के सभी अंगों का स्मरण करते हुए फैलने दें। मस्तिष्क से पैर की अंगुली तक उस विराट रश्मि को अवतरित होने दें। इससे शरीर के अंदर की अनेक विकृतियां, रोग और कुंठा का शमन होगा। उसके पश्चात नक्षत्रों का स्मरण करें और एक-एक नक्षत्र को स्मरण कर शरीर में प्रवेश कराएं, ऐसी विचार-कल्पना करें। विशेषकर आप जिस ग्रह से प्रभावित हों, उसे बार-बार धारण करें, बारी-बारी से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश की शक्तियों को शरीर में धारण करें, क्योंकि इन्हीं तत्वों से आपका शरीर बना है। इन तत्वों में असंतुलन हो जाने के कारण ही आप शरीर से बीमार पड़ते हैं। फूल, पौधे, औषधि, वनस्पति और पहाड़ ये सभी ईश्वर के ही स्वरूप हैं। अंतर यह है कि हमारी दस इंद्रियां सक्त्रिय हैं और इनकी एक, दो और तीन इंद्रियां सक्रिय हैं।


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