छठी मइया के गीतों में घर-गृहस्थी की गाथा
छठ जीवन संदर्भो से गहरे जुड़ा हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति गीतों में भी हुई है। लोक की यह खूबी रही है कि उसकी अनिवार्यताएं उसके संसाधनों से ही पूरी हो जाती हैं। लोकवृत्त में सहोपकारिता के दर्शन तो होते ही हैं, उदारचेता मनोवृत्ति भी दिखाई देती है। वैचारिक धरातल तो इतना व्यापक है कि उसके समकक्ष आधुनिक सोच भी नहीं। आज का स्त्री-विमर्श भी
छठ जीवन संदर्भो से गहरे जुड़ा हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति गीतों में भी हुई है। लोक की यह खूबी रही है कि उसकी अनिवार्यताएं उसके संसाधनों से ही पूरी हो जाती हैं। लोकवृत्त में सहोपकारिता के दर्शन तो होते ही हैं, उदारचेता मनोवृत्ति भी दिखाई देती है। वैचारिक धरातल तो इतना व्यापक है कि उसके समकक्ष आधुनिक सोच भी नहीं।
आज का स्त्री-विमर्श भी उतना आधुनिक और उदार नहीं, जितना प्रासंगिक लोक पक्ष में रहा है। इसकी बानगी ठ गीतों में देखी जा सकती है। यथा-'रुनुकी-झुनुकी हम बेटी मांगिले, पढ़ल पंडित दामाद, ठी मइया दर्शन देहूं ना अपार।' लोक में पुत्री की कामना ज्यादा समतामूलक, वैज्ञानिक और प्रासंगिक है। आज जहां मालदार ओहदे वाले दामाद लाखों-करोड़ों में खरीदे जा रहे हैं, वहीं लोक में विद्वान दामाद की कामना अपने को उत्तरआधुनिक कहने वाले लोगों को मुंह चिढ़ाती है। लोक भाव से लैस इस पर्व में प्रकृति की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से ही सूर्योपासना संपन्न् होती है। यहां तक की घाट तक पूजन सामग्री ले जाने वाली बहंगी (जिसके दोनों तरफ टोकरियां लदी होती हैं) भी बांस और मूंज से बनी होती है। गीत सुनिए 'कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए।' फल-फूल, कंद-मूल और नवान्न सब प्रकृति प्रदत्त यानी आस-पास से प्राप्त संसाधन और सामग्री। पवित्रता और स्वच्ता का खास खयाल। सुनें 'केलवा जे फरेला घवध से ओपर सुग्गा मेड़राय। मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुराय।' एक अन्य गीत सुनें 'केलवा के पात पर उगेलन सूरुजदेव कवना लागे., हम करेलीं ठ बरतिया से कवना लागे.।' इन गीतों में जागरण के संदेश भी मिलते हैं। साथ ही नव विहान का आग्रह भी है। 'कौन कोंखे जनम लेलन सूरुजदेव, उठ सूरुज भइले बिहान, रे माई.।' सृष्टि की निरंतरता को बनाए रखने की अपील और सामाजिक संतुलन बनाए रखने का आह्वान भी ठ गीतों में हुआ है। 'काहे लागी सेवली देव सुरुजमल, काहे लागी.। हे सेवली जगरनाथ हे केकरा लागी.।' गीतों में मौलिक सोच के दर्शन तो होते ही हैं सामाजिक अभियांत्रिकी भी दिखती है। आज जहां धनोपार्जन के लिए बेटा की कामना है, वहीं गतकालीन लोक में सामाजिक समरसता और मर्यादा देखते बनती है। ठ गीत की इन पंक्तियों पर गौर उचित है। 'सभवा बइठन के बेटा एक मांगिला, गोड़वा लगन के मांगिला पतोह, हे ठी मइया.।' स्पष्ट है कि गीतों में प्रकृति, समाजिकता, समरसता, सहकार और उद्दात विचारों का समाहार है। ये गीत प्रेरणा देते हैं। जीवन की कला सिखाते हैं और यह सीख भी देते हैं कि अपने संसाधनों और अपने सानिध्य में उत्सवधर्मिता का रंग कैसे सृजित हो सकता है!