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प्रेम का आधार बस प्रेम ही होता है

ईश्वर सृष्टि में सर्वोच्च सत्ता है और सब का नियमन कर रहा है। उसकी इच्छा से ही सब कुछ घटित हो रहा है। सभी जीवों को उसके अधीन जीवन व्यतीत करना पड़ता है। धर्म ने ईश्वर और जीव के मध्य के संबंध को परमात्मा और आत्मा के रूप में स्थापित

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 20 Nov 2014 11:00 AM (IST)Updated: Thu, 20 Nov 2014 11:07 AM (IST)
प्रेम का आधार बस प्रेम ही होता है
प्रेम का आधार बस प्रेम ही होता है

ईश्वर सृष्टि में सर्वोच्च सत्ता है और सब का नियमन कर रहा है। उसकी इच्छा से ही सब कुछ घटित हो रहा है। सभी जीवों को उसके अधीन जीवन व्यतीत करना पड़ता है। धर्म ने ईश्वर और जीव के मध्य के संबंध को परमात्मा और आत्मा के रूप में स्थापित करके एक अनिवार्य और अपरिहार्य बंधन में बांध दिया है।

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इस बंधन में भी प्रेम के तत्व को डाल दिया गया है ताकि यह बंधन न रहकर आनंदपूर्ण सम्मिलन जैसा हो जाए ताकि ईश्वर की महानता भी बनी रहे और जीव की पहचान भी। प्रेम का आधार बस प्रेम ही होता है। जिससे प्रेम किया जाता है, उसे पाने के लिए प्रेम किया जाता है ताकि उसे पाकर आत्मिक जीवन आनंद से परिपूर्ण हो जाए।

भौतिकतावादी जीव ने धर्म के अनुपालन में ईश्वर से संबंध तो स्थापित कर लिया, किंतु इस संबंध में प्रेम से अधिक स्वार्थ के तत्व को मुखर कर दिया गया है। शक्तिशाली परमात्मा से सांसारिक वस्तुओं को पाने की आशा अधिक हो गई है, क्योंकि उसे लगता कि आनंद इनमें है। वह सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए स्वयं भी प्रयास करता रहता है और परमात्मा से भी सहायता की याचना करता है। कई बार जब उसे आशा से परे चीजें मिल जाती हैं, तो उसे परमात्मा की कृपा दिखती है। वह ईश्वर की उपासना को लेकर गंभीर हो जाता है और उसमें प्रेम का तत्व भी प्रबल होने लगता है। ऐसे में लगता है कि धर्म उसका अंगवस्त्र बन गया है, किंतु जब काम नहीं बनते तो प्रेम तत्व न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता है और लेन-देन की व्यापारिक सोच प्रभावी होने लगती है। परमात्मा से लेन-देन पर आधारित संबंध स्थापित करने की कोशिश परमात्मा की महानता और उसके गुणों के प्रति अज्ञानता का प्रतीक है। ईश्वर कब किसको दे रहा है, यह उसकी पर निर्भर है। उस पर किसी का न तो कोई दबाव है और न ही बाध्यता। उसका विवेक और उसकी दया व करुणा भी संदेह से परे है। उसकी कृपा और उससे मिलन ही जीवन का आनंद और अभीष्ट है। वह सब कुछ हर ले और अपनी कृपा से मन से सारे उद्वेग शांत कर दे, उसकी इससे बड़ी रहमत और क्या हो सकती है।

सब कुछ है फिर भी अशांति है, क्योंकि हमने सब कुछ मांगा, लेकिन परमात्मा को मांगा ही नहीं। यदि परमात्मा को मांगने की चाह हो, तो कुछ मांगने के लिए बाकी नहीं रह जाता।


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