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ईश्वर के दरबार में सरलता का मोल है

बड़े-बड़े राजा, महाराजा, शक्तिशाली और धनवान, विद्वान संसार में आए और चले गए। अहंकार किसी का भी तुष्ट नहीं हुआ, यही उनके विनाश का कारण बना।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 23 Aug 2016 10:49 AM (IST)Updated: Tue, 23 Aug 2016 10:53 AM (IST)
ईश्वर के दरबार में सरलता का मोल है
ईश्वर के दरबार में सरलता का मोल है

मनुष्य को सबसे अधिक चिंता दूसरों की राय के संदर्भ में होती है। लोग उसे गुणी, बुद्धिमान, समर्थ मानें और समाज में उसके मान-सम्मान पर कोई आंच न आए, इसे वह सबसे अधिक महत्व देता है। यह चिंता जितनी दृढ़ होती जाती है, मनुष्य अपने प्रति उतना ही अधिक संवेदनशील होता जाता है। यह संवेदनशीलता ही अहंकार की जनक है। गुण, धन, शक्ति और सामथ्र्य के साथ यदि विवेक जुड़ जाए तो मनुष्य इनका सदुपयोग करते हुए सच के मार्ग पर चल पड़ता है। विवेक न हो, तब स्वयं के प्रति चिंता और संवेदनशीलता सीमाएं लांघ जाती हैं और अहंकार जन्म लेता है।
अहंकार की राह में आने वाला हर कारण मनुष्य के क्रोध का कारण बनता है। विवेक है तो सहजता आती है और मान-अपमान, हर्ष-विषाद, ऊंच-नीच जैसे प्रश्न गौण होते जाते हैं। यह समझ में आने लगता है कि उसके हाथ कुछ भी नहीं है। सब कुछ ईश्वर के अधीन है और वह उसका पालक, पोषक व हित चाहने वाला है। वह जो कुछ कर रहा है, इसी में मनुष्य का हित है। यह विचार उसे किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहने और उसे स्वीकार करने योग्य बना देता है। उसे ईश्वर ने राज-पाट दे दिया है तो ठीक, यदि उससे भीख मंगवा रहा है तो उसमें भी ऐसा मनुष्य प्रसन्न रहता है। उसे ईश्वर के हुक्म की चिंता होती है। उसकी स्वयं की कामनाएं पीछे छूट जाती हैं। विवेक नहीं है तो अपनी लालसाएं आगे-आगे चलती हैं और उन्हें बचाने के लिए मनुष्य कोई भी अपराध करने को तैयार हो जाता है।
बड़े-बड़े राजा, महाराजा, शक्तिशाली और धनवान, विद्वान संसार में आए और चले गए। अहंकार किसी का भी तुष्ट नहीं हुआ, लालसाएं किसी की भी पूरी नहीं हुईं और वे क्रोध में बह गए। यही उनके विनाश का कारण बना। इतिहास में सदा विवेक, सहजता और विनम्रता को ही सम्मान मिला है, क्रोध, अहंकार और लालसा, लोभ को नहीं। समाज में सभी लोगों ने कभी भी किसी की भी सराहना नहीं की है। महापुरुषों को तो अपने जीवन काल में भारी विरोध और अपमान सहना पड़ा है। सच की राह कठिन और एकाकी होती है। मनुष्य की वास्तविक परीक्षा ईश्वर के सामने है। उसे स्वयं को वहां सिद्ध करने का प्रयास करना चाहिए। ईश्वर के दरबार में सरलता का मोल है। अपने गुणों पर खरे उतरने के लिए उसे समाज की चिंता छोड़नी होगी और अपने अस्तित्व को परमात्मा पर टिका देना होगा। विकारों से मुक्ति का यही एक ढंग है।


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