पुत्र-पुत्री व वंश की मंगलकामना भी होती छठ के पूजा व गीतों में
गांव को परिवार में बदल देता है छठ। यही छठ की खासियत है। यह एक गांव को एक परिवार में बदल देता है। कोई छोटा नहीं। कोई बड़ा नहीं। सभी अपने। सब एक-दूसरे के साथ होते हैं। एक-दूसरे के बिना पूजा हो ही नहीं सकती। सोने का कटोरा, दूध, पान और फूल माला मिल जाती है। बाकी वस्तुएं भी आ ही जाएंगी। 'छोटी-मुटी डोमिन बिटिया के लामी ला
गांव को परिवार में बदल देता है छठ। यही छठ की खासियत है। यह एक गांव को एक परिवार में बदल देता है। कोई छोटा नहीं। कोई बड़ा नहीं। सभी अपने। सब एक-दूसरे के साथ होते हैं। एक-दूसरे के बिना पूजा हो ही नहीं सकती। सोने का कटोरा, दूध, पान और फूल माला मिल जाती है। बाकी वस्तुएं भी आ ही जाएंगी। 'छोटी-मुटी डोमिन बिटिया के लामी लामी केस, कलसूपवा लेले अइहें हो बिटिया, अरघिया के बेर।'
अर्घ्य के समय डोमिन की लंबे-लंबे केश वाली बिटिया कलसूप लेकर आएगी। उसके बिना पूजा कैसे पूरी होगी?
लोकपर्व
अचानक ठहर जाता हूं। छठी मइया के नाराज होने की जानकारी मिलती है एक गीत में। यह छठ पूजा का स्टार्टर है। ग्राम वधू गा रही होती है - 'कोपी-कोपी बोलेली छठीय माता, सुनी ए सेवक लोग.हमरी घाटे दुबिया उपजी गइले, मकरी बसेरा लेली.।' 'कोपी-कोपी' यानी नाराज होकर छठी माता शिकायत कर रही हैं। घाटों पर लंबी घास उगी है। मकड़ी के जाले लग रहे हैं। धान की रोपनी और बरसात की परेशानी झेलने वाला ग्राम्य जीवन दिवाली में अंगड़ाई लेता है। लेकिन दिवाली में सफाई तो सिर्फ अपने 'आंगन-दुआर' की होती है। नदी का किनारा गंदा है। पोखर का किनारा गंदा है। वहां सफाई जरूरी है। सामुदायिक स्वच्छता के लिए प्रेरित करते हुए इस छठ गीत से लोकपर्व का विधान शुरू होता है। सेवक की तंद्रा टूटती है और वह छठी मईया को आश्वस्त करता है - 'हाथ जोड़ी बोलेले सेवक लोग, सुनी ए छठीय माता, रउरा घाटे दुबिया छिलाई देबो, मकरी उजारी देबो.।' फिर चंदन छिड़कने और घी के हुमाद का वादा भी होता है। माता प्रसन्न होती हैं। सेवक तैयारियों में जुट जाते हैं। छठ मईया की पूजा होगी। संकल्प के बाद चिंता होती है पूजा होगी कैसे? 'कहां पइबो सोने के कटोरवा, कहां रे पइबो दूध। कहां पइबो फूल के मालावा, कहां रे पइबो पान.।' इस चिंता से गांव दूर करता है। वही गांव, जो है तो गांव लेकिन परिवार से कम नहीं। 'सोनारा के घरे सोना के कटोरवा, ग्वाला घरे दूध, मलहोरिया के घरे फूल मालावा, पनेरिया घरे पान.।' छठ मइया के आशीर्वाद से 'तिवई' (व्रती) तमाम तैयारियों में जुट जाती हैं। एक 'तिवई' का दुख अलग है। पुत्र की कामना में वह छठ की पूजा कर रही होती है - 'भोरही में नदिया नहाइला, आदित्य मनाइला हो, बाबा अंगने में मांगीला अंजोर, मथवा नवाइना हो.। ताना देके कहेली गोतिनिया, इ तिवई बंझिनिया नू हो, बाबा गोतिनी के ताना न सहाला, सब गुन गाइला हो.।' सुबह स्नान कर आंगन में पूजा की तैयारी कर रही महिला को उसकी जेठानी बांझ होने का ताना देती है। दुखी होकर वह भगवान आदित्य से कहती है कि अब यह ताना सहा नहीं जा रहा। उसके दुख से भगवान भी दुखी होते हैं। फिर आश्वस्त करते हैं कि 'चुप रह, धीर धर तिवई, तू बांझ नाही रहबू नु हो। बस आज से नौ रे महिनवा होरिल मुस्कइहें नु हो.।' इसी मनुहार-प्रार्थना के बीच तैयारियां चलती हैं। 'पियरी' पहनकर घाट पहुंचती हैं। मईया को पूजती हैं। अर्घ्य देती हैं। आंगन में दीपमाला सजाती है। कोसी भरने की तैयारी होती है। कंठ सूख रहा होता है, लेकिन गीत के बोल हल्के नहीं पड़ते। भिनुसार होता है। वह फिर घाट पर पहुंचने को बेचैन हो जाती है - 'आम के बाग में कोयल बोले, दुअरा पर बोलेला मोर, आरे बाबू जलदी से दउरा पहुंचाव, अरघिया के बेरा भइले.।' अर्घ्य का समय आता है - 'केलवा के पात पर उगेलन सूरजमल झांके झूके.।' भगवान भास्कर उदय होते हैं - 'थर-थर कांपेले बदनवा, होठवा गईले झुराय, तीन दिन के भुखल तिवईया, जल बीच खाड़।' बदन कांप रहा है। तीन दिन से उपवास है। ओठ सूख रहे हैं। पानी में खड़ी व्रती सूर्य बाबा के 'चितकाबर घोड़े वाले रथ' का इंतजार कर रही होती है। इंतजार खत्म होता है। भगवान भास्कर उदय होते हैं।
पुत्र-पुत्री और वंश की मंगलकामना भी -
छठ के प्रार्थना गीतों में पुत्र-पुत्री व वंश की मंगलकामना होती। अखंड सुहाग के प्रति आश्वासन मिलता है। व्रती छठ मइया के बल पर क्या नहीं सोच लेती। गांव का हरियाली से भरे पोखर पर 'बनारस अइसन घाट' दिखता है।
पटना के घाट पर देहब हम अरघिया-
हुलसती है, तो कहती है कि 'पटना के घाट पर देहब हम अरघिया, हम ना जाइब दोसर घाट.।' पटना नहीं जा पाती, तो अपने भाई से मनुहार करती है - 'गांव के अधिकारी मोरा भैया हो, अस्सी हाथ पोखरा खोना द, चंपा फूल लगा दिह हो.।'