जाति-कुल-प्रतिष्ठा आदि का अहंकार कभी अपने मन में न लाए
कर्तव्य पालन की दृष्टि से मनुष्य के लिए चार पुरुषार्र्थो- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को मान्यता दी गई है। इनमें से धर्म, अर्थ और काम में समस्त सांसारिक गतिविधियां सिमट जाती हैं। मोक्ष लोकोत्तर पुरुषार्थ है। वह साध्य है और अन्य पुरुषार्थ साधन के रूप में हैं। आज उपभोक्तावादी
कर्तव्य पालन की दृष्टि से मनुष्य के लिए चार पुरुषार्र्थो- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को मान्यता दी गई है। इनमें से धर्म, अर्थ और काम में समस्त सांसारिक गतिविधियां सिमट जाती हैं। मोक्ष लोकोत्तर पुरुषार्थ है। वह साध्य है और अन्य पुरुषार्थ साधन के रूप में हैं। आज उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से हमने अर्थ व काम को प्रधानता दी है और मोक्ष के साधनभूत पुरुषार्थ धर्म को भुला दिया है। अर्थ और काम का उपभोग जब धर्म से अनुशासित नहीं रहता, तो वह जीवन के लिए विष बन जाता है। वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि हमारा प्रत्येक कार्य धर्म से अनुप्राणित हो, पर यह तभी संभव है जब हम धर्म की वास्तविकता को, उसके मर्म और निहितार्थ को समङों।
धर्म के विषय में कोई भी दर्शन या संप्रदाय एकमत नहीं है। अधिकांश संप्रदाय बाह्य क्रियाकांड को ही धर्म मानते हैं। बाह्याचार में धर्म को इतना उलझा दिया गया है कि उसका वास्तविक रूप गौण या दृष्टि से बिल्कुल ओझल हो गया है। जैन आगमों में धर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि धर्म का संबंध बाहरी दिखावे से कतई नहीं है, वह तो वस्तु के आंतरिक भाव को ही पकड़ता है। मात्र प्रार्थना में होठों को हिला देना ही धर्म नहीं है, कुछ गाथाओं को हमने उच्चारित कर दिया, लेकिन मात्र यही धर्म नहीं है। धर्म है- विषय, वासनाओं, विकारों से ऊपर उठने में। वस्तुत: मनुष्य का आध्यात्मिक उत्थान ही वास्तविक उत्थान है। भौतिक सुविधाएं तो उसका आनुषांगिक फल हैं। इसलिए धर्म की सार्थकता का मापदंड भौतिक उत्थान कभी नहीं हो सकता। धर्म का निहितार्थ है- सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान और सच्चा चारित्र। सच्ची श्रद्धा को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य केवल परंपराओं से प्रभावित न हो।
जाति-कुल-प्रतिष्ठा आदि का अहंकार कभी अपने मन में न लाए और न कभी किसी प्रकार का आग्रह करे। मनुष्य की सारी परेशानियों का कारण उसका आग्रह ही है। किसी से घृणा करना, रुढ़ियों का विवेकहीन समर्थन करना, दूसरों के दोषों को देखकर उनको प्रगट करना, गिरते हुए को न बचाना आदि सच्ची श्रद्धा के विरोधी तत्व हैं। जब तक इन्हें दूर न किया जाए सच्ची श्रद्धा की प्राप्ति नहीं हो सकती।