Move to Jagran APP

पतंजलि के योग-सूत्र में स्वच्छता के सूत्र मिलते हैं...

बाहरी स्वच्छता के साथ-साथ भीतरी स्वच्छता भी आवश्यक है। पतंजलि के ग्रंथ योग-सूत्र में हमें हर प्रकार की

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 28 Nov 2014 02:06 PM (IST)Updated: Fri, 28 Nov 2014 02:13 PM (IST)
पतंजलि के योग-सूत्र में स्वच्छता के सूत्र मिलते हैं...

बाहरी स्वच्छता के साथ-साथ भीतरी स्वच्छता भी आवश्यक है। पतंजलि के ग्रंथ योग-सूत्र में हमें हर प्रकार की

loksabha election banner

आजकल जिसे स्वच्छता कहते हैं, उसे पहले शुचिता कहा जाता था। हमारी संस्कृति में उसका बहुत ही व्यापक अर्थ है। 'शुचिÓ शब्द संस्कृत में प्रकाशवाचक है। गीता में शुचित्वम् शब्द ब्राहमण के लक्षण में आया है, दैवी संपदा के गुणों के वर्णन में भी आया है। तेरहवें अध्याय में ज्ञान के लक्षण में भी आया है। ब्राहमण के लक्षण में वह एक सामाजिक कार्य के रूप में आया है और दैवी संपत्ति में वह नैतिक विचार के रूप में प्रकट हुआ। ज्ञान-प्राप्ति के साधनों में उससे पारमार्थिक विचार प्रकट होता है। इस तरह तीन जगह गीता ने इसका उल्लेख किया है। यानी यह चीज वैयक्तिक, सामाजिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में आती है, इसीलिए योगसूत्रकार पतंजलि ने इस पर दो सूत्र लिखे हैं।

शुचिता में पारस्परिक व्यवहार कैसा हो, मानसिक विकार न हो, ये सारी बातें खास कर पातंजलि योग-सूत्र में आती हैं। उसमें शुचिता पर एक सुंदर व्याख्यान ही है।

शुचिता का एक बाच् रूप है और दूसरा आंतरिक। बाच् के लिए पतंजलि ने सूत्र बनाया -शौचात स्वांग जुगुप्सा परै: असंसर्ग:। शुचिता का अर्थ है अपने शरीर के प्रति आसक्ति का अभाव हो, दूसरे समाज का निर्माण ऐसा हो कि जिसमें संपर्क हो, किंतु संसर्ग न हो।

पहला है देह के प्रति आसक्ति का भाव। देह के प्रति आसक्ति नहीं होगी, तभी हम गंदी जगहों पर जा सकेेंगे और वहां की सफाई कर सकेेंगे। बीमारों की सेवा कर सकेेंगे। इन दिनों देह को बहुत सजाया-संवारा जाता है। चेहरे पर न जाने कैसी-कैसी चीजें लगाई जाती हैं। अगर भीतर स्वच्छता हो, तो बाहर प्रसन्नता दिखेगी। उससे चेहरा आकर्षक दिखेगा। दूसरी बात, स्वच्छता के विकास के लिए बताया गया है कि दूसरे से संपर्क बना रहे, पर संसर्ग न हो। संसर्ग यानी ऐसा संपर्क न हो, जो आक्रमणकारी हो, जिसके कारण शरीर को तकलीफ हो। जरा दूर से संपर्क हो। हमारे यहां रिवाज है कि एक-दूसरे से मिलने पर नमस्कार करते हैं और पश्चिम में शेकहैंड यानी हाथ मिलाने की प्रथा है। हमारी परंपरा में संसर्ग नहीं, संपर्क है। हमारा नमस्कार का रिवाज मर्यादाशील है। यूरोप के लोग फूलों का गुलदस्ता बनाकर हाथ में देते हैं, वे फूल आपस में बंधे होते हैं। हमारे यहां माला देने का रिवाज है, जिसमें हर फूल अलग-अलग पिरोया रहता है। हर फूल स्वतंत्र होता है। गुलदस्ते में संसर्ग है और माला में संपर्क। माला यहां की सभ्यता का प्रतीक है और गुलदस्ता वहां की। मुख्य बात यह है कि

शरीर से विकारी (इन्फेक्टेड) स्पर्श या संपर्क या संबंध न रखना। छोटे बच्चे का मां-बाप, भाई-बहन, पड़ोसी चुंबन लेते हैं, यह गंदा रिवाज है। किसी ने कोई डिसइनफेक्टंट तो लगाया नहीं है। अगर स्पर्श किया भी जाए, तो केवल सेवा के लिए हो।

आचार्य विनोबा भावे


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.