भीतर की संपदा
बाहरी धन-संपदा से ज्यादा महत्वपूर्ण है भीतर की संपदा। अंतस के धनी बनकर ही हम सही मायने में सफल कहलाएंगे...
बाहरी धन-संपदा से ज्यादा महत्वपूर्ण है भीतर की संपदा। अंतस के धनी बनकर ही हम सही मायने में सफल कहलाएंगे...
कणाद ऋषि के बारे में किंवदंती है कि खेतों में जो अन्न कण पड़े रह जाते थे, उससे अपना पेट भरते थे, इसीलिए उनका नाम कणाद पड़ा। एक कथा है कि राजा ऋषि कणाद के पास धन लेकर स्वयं गया, तो ऋषि ने कहा, ‘इस धन को उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी आवश्यकता है। मुझे तो जरूरत नहीं। मेरे पास तो सब कुछ है।’
राजा चकित हो गया। कणाद ने कहा, ‘मेरे जीवन के लिए जितना आवश्यक है, वह मुझे मिल जाता है। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी पाने की इच्छा नहीं है। जो हमेशा पाना चाहता है, वह गरीब है, जिसे कुछ पाने की इच्छा नहीं, वह सम्राट।’ खर्च नहींहोता भीतरी धन कहानी संकेत करती है कि बाहरी धन- संपदा से ज्यादा महत्वपूर्ण हमारी भीतरी संपदा है। बाहरी संपदा तो खर्च होती रहती है, बल्कि भीतरी संपदा बांटने से भी बढ़ती है। बाहरी संपदा चोरी हो सकती है। हम बाहर से कैसे भी हों, महत्वपूर्ण यह है कि हम भीतर से गरीब हैं या सम्राट।
जिसके पास बुद्धि, मेधा, ज्ञान, विवेक, करुणा, दया और कर्मशीलता का भीतरी धन है, उसे किस चीज की
कमी है। मान्यता है कि सर्वप्रथम परमाणु की अवधारणा कणाद ने दी, वे वैशेषिक दर्शन के प्रणेता भी है। आपार भीतरी संपदा होने पर कणाद गरीब कैसे हो सकते थे?
आत्मिक समृद्धि बुद्ध के एक प्रमुख शिष्य अपने गृह-स्थान आए, तो उनकी मां उनके उपदेश सुनने गईं। इस बीच उनके घर में चोर धन-संपदा लूटने लगे। चोरों के आने का पता धनी महिला को दासी से चल गया था, किंतु वह बोलीं, ‘उन्हें जो ले जाना हो, ले जाने दे, लेकिन प्रवचन की जो संपदा है, उसे पाने में विघ्न मत डाल।’ चोरों के सरदार को यह पता चला तो वह समझ गया कि इन हीरे-जवाहरात से भी ज्यादा मूल्यवान कुछ है। वह प्रवचन में पहुंचा, सुनकर उसे लगा कि वह तो कूड़ा-कर्कट इकट्ठा करता रहा। बुद्ध ने कहा है कि नाव को जितना भरेंगे,
उसके डूबने का खतरा उतना ही ज्यादा है। हम धन-संपत्ति घर में भरते हैं, पर वह हमारे मन में अधिक भरती है। हमारा मन उसके बोझ से बोझिल हो जाता है। तमाम भय हमारे भीतर आ जाते हैं। इसलिए हमें भौतिक समृद्धि के बजाय आत्मिक समृद्धि के लिए प्रयास करना चाहिए।