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क्या है देवी देवताओं के वाहनों का रहस्य, आखिर पशु पक्षी ही क्यों चुने गये वाहन के लिए

प्रत्येक देवी और देवता का एक वाहन होता है। हालांकि देवी-देवताओं को कहीं आने जाने के लिए वहन की जरूरत नहीं, लेकिन इससे यह समझे कि उक्त वाहनों का कितना महत्व है। आओ जानते हैं कि देवी-देवताओं के वाहनों की असली कहानी। देवी-देवताओं ने अपने वाहन के रूप में कुछ

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 10 Feb 2016 03:13 PM (IST)Updated: Thu, 11 Feb 2016 09:34 AM (IST)
क्या है देवी देवताओं के वाहनों का रहस्य, आखिर पशु पक्षी ही क्यों चुने गये वाहन के लिए

प्रत्येक देवी और देवता का एक वाहन होता है। हालांकि देवी-देवताओं को कहीं आने जाने के लिए वहन की जरूरत नहीं, लेकिन इससे यह समझे कि उक्त वाहनों का कितना महत्व है। आओ जानते हैं कि देवी-देवताओं के वाहनों की असली कहानी। देवी-देवताओं ने अपने वाहन के रूप में कुछ पशु या पक्षियों को चुना है, तो इसके पीछे उनकी विशिष्ठ योग्यता ही रही है। ब्रह्म अर्थात ईश्वर ही मात्र सर्वोच्च्य है । देवी और देवता एक ब्रह्म के प्रतिनिधि हैं। देवी और देवता 33 प्रकार के होते हैं और उक्त 33 प्रकार के देवी-देवताओं के हजारों गण होते हैं जिन्हें देवगण कहा गया है।

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अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक कारणों से भारतीय मनीषियों ने भगवानों के वाहनों के रूप पशु-पक्षियों को जोड़ा है। यह भी माना जाता है कि देवताओं के साथ पशुओं को उनके व्यवहार के अनुरूप जोड़ा गया है।

अगर पशुओं को भगवान के साथ नहीं जोड़ा जाता तो शायद पशु के प्रति हिंसा का व्यवहार और ज्यादा होता। भारतीय मनीषियों ने प्रकृति और उसमें रहने वाले जीवों की रक्षा का एक संदेश दिया है। हर पशु किसी न किसी भगवान का प्रतिनिधि है, उनका वाहन है, इसलिए इनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए।

विष्णु जी का वाहन गरूड़

माना जाता है कि गिद्धों (गरूड़) की एक ऐसी प्रजाति थी, जो बुद्धिमान मानी जाती थी और उसका काम संदेश को इधर से उधर ले जाना होता था, जैसे कि प्राचीनकाल से कबूतर भी यह कार्य करते आए हैं। भगवान विष्णु का वाहन है गरूड़। प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के 2 पुत्र हुए- गरूड़ और अरुण। गरूड़जी विष्णु की शरण में चले गए और अरुणजी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। राम के काल में सम्पाती और जटायु की बहुत ही चर्चा होती है। ये दोनों भी दंडकारण्य क्षेत्र में रहते थे, खासकर मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में इनकी जाति के पक्षियों की संख्या अधिक थी। छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में गिद्धराज जटायु का मंदिर है। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे इसीलिए यहां एक मंदिर है। दूसरी ओर मध्यप्रदेश के देवास जिले की तहसील बागली में ‘जटाशंकर’ नाम का एक स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि गिद्धराज जटायु वहां तपस्या करते थे। जटायु पहला ऐसा पक्षी था, जो भगवन राम के लिए बलिदान हो गया था। जटायु का जन्म कहां हुआ, यह पता नहीं, लेकिन उनकी मृत्यु दंडकारण्य में हुई।

मां लक्ष्मी का वाहन उल्लू

उल्लू सबसे बुद्धिमान निशाचारी प्राणी होता है। उल्लू को भूत और भविष्य का ज्ञान पहले से ही हो जाता है। उल्लू को भारतीय संस्कृति में शुभता और धन संपत्ति का प्रतीक माना जाता है। जब पूरी दुनिया सो रही होती है तब यह जागता है। यह अपनी गर्दन को 170 अंश तक घुमा लेता है। यह रात्री में उड़ते समय पंख की आवाज नहीं निकालता है और इसकी आंखें कभी नहीं झपकती है। उल्लू का हू हू हू उच्चारण एक मंत्र है।

उल्लू कैसे बना लक्ष्मी का वाहन : प्राणी जगत की संरचाना करने के बाद एक रोज सभी देवी-देवता धरती पर विचरण के लिए आए। जब पशु-पक्षियों ने उन्हें पृथ्वी पर घुमते हुए देखा तो उन्हें अच्छा नहीं लगा और वह सभी एकत्रित होकर उनके पास गए और बोले आपके द्वारा उत्पन्न होने पर हम धन्य हुए हैं। हम आपको धरती पर जहां चाहेंगे वहां ले चलेंगे। कृपया आप हमें वाहन के रूप में चुनें और हमें कृतार्थ करें।

देवी-देवताओं ने उनकी बात मानकर उन्हें अपने वाहन के रूप में चुनना आरंभ कर दिया। जब लक्ष्मीजी की बारी आई तब वह असमंजस में पड़ गई किस पशु-पक्षी को अपना वाहन चुनें। इस बीच पशु-पक्षियों में भी होड़ लग गई की वह लक्ष्मीजी के वाहन बनें। इधर लक्ष्मीजी सोच विचार कर ही रही थी तब तक पशु पक्षियों में लड़ाई होने लगी गई।

इस पर लक्ष्मीजी ने उन्हें चुप कराया और कहा कि प्रत्येक वर्ष कार्तिक अमावस्या के दिन मैं पृथ्वी पर विचरण करने आती हूं। उस दिन मैं आपमें से किसी एक को अपना वाहन बनाऊंगी। कार्तिक अमावस्या के रोज सभी पशु-पक्षी आंखें बिछाए लक्ष्मीजी की राह निहारने लगे। रात्रि के समय जैसे ही लक्ष्मीजी धरती पर पधारी उल्लू ने अंधेरे में अपनी तेज नजरों से उन्हें देखा और तीव्र गति से उनके समीप पंहुच गया और उनसे प्रार्थना करने लगा की आप मुझे अपना वाहन स्वीकारें।

लक्ष्मीजी ने चारों ओर देखा उन्हें कोई भी पशु या पक्षी वहां नजर नहीं आया। तो उन्होंने उल्लू को अपना वाहन स्वीकार कर लिया। तभी से उन्हें उलूक वाहिनी कहा जाता है।

मां सरस्वती का वाहन हंस

हंस पवित्र, जिज्ञासु और समझदार पक्षी होता है। यह जीवनपर्यन्त एक हंसनी के ही साथ रहता है। परिवार में प्रेम और एकता का यह सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है। इसके अलावा हंस अपने चुने हुए स्थानों पर ही रहता है। तीसरी इसकी खासियत हैं कि यह अन्य पक्षियों की अपेक्षा सबसे ऊंचाई पर उड़ान भरता है और लंबी दूरी तय करने में सक्षम होता है। जो ज्ञानी होते हैं वे हंस के समान ही होते हैं और जो बुद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं उनको परमहंस कहा गया है। ज्ञान की देवी मां सरस्वती के लिए सबसे बेहतर वाहन हंस ही हो सकता था। मां सरस्वती का हंस पर विराजमान होना यह बताता है कि ज्ञान से ही जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है। ज्ञान से ही जीवन में पवित्रता, नैतिकता, प्रेम और सामाजिकता का विकास होता है। ज्ञान क्या है? जो-जो भी अज्ञान है उसे जान लेना ही ज्ञानी होने का प्रथम लक्षण है।

शिव जी का वाहन नंदी बैल

शिव के एक गण का नाम है नंदी। प्राचीनकालीन किताब कामशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र में से कामशास्त्र के रचनाकार नंदी ही थे। भारत में बैल खेती के लिए हल में जोते जाने वाला एक महत्वपूर्ण पशु रहा है।

जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ है उसी तरह बैलों में नंदी श्रेष्ठ है। आमतौर पर खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला बताया गया है। इसके अलावा वह बल और शक्ति का भी प्रतीक है। बैल को मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला प्राणी भी माना जाता है। यह सीधा-साधा प्राणी जब क्रोधित होता है तो सिंह से भी भिड़ लेता है। यही सभी कारण रहे हैं जिसके कारण भगवान शिव ने बैल को अपना वाहन बनाया। शिवजी का चरित्र भी बैल समान ही माना गया है।

पौराणिक कथा अनुसार शिलाद ऋषि ने शिव की तपस्या के बाद नंदी को पुत्र रूप में पाया था। नंदी को उन्हों वेदादि ज्ञान सहित अन्य ज्ञान भी प्रदान किया। एक दिन शिलाद ऋषि के आश्रम में मित्र और वरुण नाम के दो दिव्य संत पधारे और नंदी ने पिता की आज्ञा से उनकी खुब सेवा की जब वे जाने लगे तो उन्होंने ऋषि को तो लंबी उम्र और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया लेकिन नंदी को नहीं। तब शिलाद ऋषि ने उनसे पूछा कि उन्होंने नंदी को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया?

तब संतों ने कहा कि नंदी अल्पायु है। यह सुनकर शिलाद ऋषि चिंतित हो गए। पिता की चिंता को नंदी ने भांप कर पूछा क्या बात है तो पिता ने कहा कि तुम्हारी अल्पायु के बारे में संत कह गए हैं इसीलिए चिंतित हूं। यह सुनकर नंदी हंसने लगा और कहने लगा कि आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है तो मेरी उम्र की रक्षा भी वहीं करेंगे आप क्यों नाहक चिंता करते हैं। इतना कहते ही नंदी भुवन नदी के किनारे शिव की तपस्या करने के लिए चले गए। कठोर तप के बाद शिवजी प्रकट हुए और कहा वरदान मांगों वत्स। तब नंदी के कहा कि मैं ताउम्र आपके सानिध्य में रहना चाहता हूं।

नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को पहले अपने गले लगाया और उन्हें बैल का चेहरा देकर उन्हें अपने वाहन, अपना दोस्त, अपने गणों में सर्वोत्तम के रूप में स्वीकार कर लिया।

मां पार्वती का वाहन बाघ

माता पार्वती का वाहन बाघ है तो मां दुर्गा का वाहन शेर। मांता दुर्गा को शेरावाली कहा जाता है। बाघ तो माता पार्वती का वाहन है। बाघ अदम्य साहस, क्रूरता, आक्रामकता और शौर्यता का प्रतीक है। यह तीनों विशेषताएं मां पार्वती के आचरण में भी देखने को मिलती है। बाघ की दहाड़ के आगे संसार की बाकी सभी आवाजें कमजोर लगती हैं। मां पार्वती का हृदय बहुत ही कोमल है। मां की पूजा यदि सच्चे मन और श्रृद्धा के साथ की जाएं तो हर बिगड़े कार्य बन जाते है।एक दिन मां पार्वती और भगवान शिव साथ बैठे थे। मजाक में ही शिवजी ने माता को काली कह दिया। मां को बहुत लगा और वह कैलाश छोड़कर एक वन में चली गई और कठोर तपस्या में लीन हो गई। इस बीच एक भूखा शेर मां पार्वती को खाने की इच्छा से वहां पहुंचा, ले‌किन वह वहीं चुपचाप बैठ गया।

माता के प्रभाव के चलते वह बाघ भी तपस्या कर रही मां के साथ वहीं सालों चुपचाप बैठा रहा। मां ने हठ कर ली थी कि जब तक वह गौरी नहीं हो जाएगी तब तक वह यहीं तपस्या करेगी। तब शिवजी वहां प्रकट हुए और देवी को गौरा होने का वरदान देकर चले गए। फिर माता ने पास की ही नदी में स्नान किया और बाद में देखा की एक बाघ वहां चुपचाप बैठा माता को ध्यान से देख रहा है। माता पार्वती को जब यह पता चला कि यह शेर उनके साथ ही तपस्या में यहां सालों से बैठा रहा है तो माता ने प्रसंन्न होकर उसे वरदान स्वरूप अपना वाहन बना लिया। तब से मां पार्वती का वाहन बाघ हो गया।

गणेशजी का वाहन मूषक

भगवानों ने अपनी सवारी बहुत ही विशेष रूप से चुनी। उनके वाहन उनकी चारित्रिक विशेषताओं को भी बताते हैं। शिवपुत्र गणेशजी का वाहन है मूषक। मूषक शब्द संस्कृत के मूष से बना है जिसका अर्थ है लूटना या चुराना।सांकेतिक रूप से मनुष्य का दिमाग मूषक, चुराने वाले यानी चूहे जैसा ही होता है। यह स्वार्थ भाव से गिरा होता है। गणेशजी का चूहे पर बैठना इस बात का संकेत है कि उन्होंने स्वार्थ पर विजय पाई है और जनकल्याण के भाव को अपने भीतर जागृत किया है। वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य और चूहे के मस्तिष्क का आकार प्रकार एक समान है। चूहे का किसी न किसी रूप में मनुष्य से कोई सबंध जरूर है उसी तरह जिस तरह की चूहे और हाथी का।

कार्तिकेय का वाहन मयूर

मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है। यह पक्षी जितना राष्ट्रीय महत्व रखता है उतना ही धार्मिक महत्व भी, हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान मुरुगन या कहें कार्तिकेय का वाहन मोर है। एक मान्यता अनुसार अरब में रह रहे यजीदी समुदाय (कुर्द धर्म) के लोग हिन्दू ही हैं और उनके देवता कार्तिकेय है जो मयूर पर सवार हैं। भारत में दक्षिण भारत में कार्तिकेय की अधिक पूजा होती है। कार्तिकेय को स्कंद भी कहा जाता है, जो शिव के बड़े पुत्र हैं। कार्तिकेय का वाहन मयूर है। एक कथा के अनुसार कार्तिकेय को यह वाहन भगवान विष्णु ने उनकी सादक क्षमता को देखकर ही भेंट किया था। मयूर का मान चंचल होता है। चंचल मन को साधना बड़ा ही मुश्किल होता है। कार्तिकेय ने अपने मन को साथ रखा था। वहीं एक अन्य कथा में इसे दंभ के नाशक के तौर पर कार्तिकेय के साथ बताया गया है।

इंद्र का वाहन सफेद हाथी

आजकल सफोद हाथी तो बहुत कम पाए जाते हैं। इंद्र ने अपना वाहन ऐरावत नामक एक हाथी को बनाया। समुद्र मंथन के दोरान 14 रत्नों में से एक ऐरावत की भी उत्पत्ति हुई थी। हाथी शांत, समझदार और तेज बुद्धि का प्रतीक है। ऐरावत को चार दांतों वाला बताया गया है। ‘इरा’ का अर्थ जल है, अत: ‘इरावत’ (समुद्र) से उत्पन्न हाथी को ऐरावत नाम दिया गया है। महाभारत, भीष्मपर्व के अष्ट्म अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भू-भाग को उत्तर कुरु के बदले ‘ऐरावत’ कहा गया है। जैन साहित्य में भी यही नाम आया है। यह उत्तर कुरु दरअसल उत्तरी ध्रुव में स्थित था। संभवत: वहां प्राचीनकाल में इस तरह के हाथी होते होंगे जो बहुत ही सफेद और चार दांतों वाले रहे होंगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि लगभग 35 हजार वर्ष पूर्व उत्तरी ध्रुव पर बर्फ नहीं बल्कि मानव आबादी आबाद रहती थी।

यमराज का वाहन भैंसा

यम नाम एक वायु होती है। मरने के बाद व्यक्ति उक्त वाय में जाकर स्थिर हो जाता है और फिर प्राकृतिक चक्र अनुसार पुन: धरती पर जन्म ले लेता है। यम नामक एक देवता हैं जिनको मृत्यु का देवता कहते हैं। ये दक्षिण दिशा के दिक् पाल कहे जाते हैं। यमराज को भैंसे पर सवार बताया गया है। भैंसा एक सामाजिक प्राणी होता है। सभी भैंसे मिलकर एक दूसरे की रक्षा करते हैं। यह एकता का प्रतीक है। भैंसा अपनी शक्ति और फूर्ति के लिए भी जाना जाता है। भैंसा अपनी शक्ति का कभी दुरुपयोग नहीं करता। भैंसा अपनी आत्मरक्षा में ही किसी पर हमला करता है। भैंसे का रूप जिस तरह से भयानक होता है उसी तरह यमराज का रूप भी भयानक है। अत: यमराज उसको अपने वाहन के तौर पर प्रयोग करते हैं।

व्यक्ति मरता है तो सबसे पहले यमदूतों के पल्ले पड़ता है, जो उसे ‘यमराज’ के समक्ष उपस्थित कर देते हैं। यमराज को दंड देने का अधिकार प्रदान है। वही आत्माओं को उनके कर्म अनुसार नरक, स्वर्ग, पितृलोक आदि लोकों में भेज देते हैं। उनमें से कुछ को पुन: धरती पर फेंक दिया जाता है।

विधाता (ईश्वर) लिखता है, चित्रगुप्त बांचता है, यमदूत पकड़कर लाते हैं और यमराज दंड देते हैं। मृत्य का समय ही नहीं, स्थान भी निश्चित है जिसे कोई टाल नहीं सकता।


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