मानवता के सच्चे सेवक श्री गुरु अर्जुन देव
मुरादपुरा में एक कुष्ठ आश्रम स्थापित हो गया। यहां दूर-दूर से कुष्ठ रोगी आते और उनकी सेवा से भले-चंगे होकर लौटते।
सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव का जन्म गोइंदवाल साहिब में चौथे गुरु रामदास और माता बीबी भानी के घर तीसरे पुत्र के रूप में हुआ। तीसरे गुरु अमरदास इनके नाना थे। अर्जुन देव आध्यात्मिक चिंतक, उत्कृष्ट वाणीकार, श्रेष्ठ संगठनकर्ता और मानवतावाद के प्रबल पक्षधर थे।
गुरु जी ने अपने अद्वितीय कार्यों के बल पर संसार में मानवता का मार्ग प्रशस्त किया। गुरुजी का सारा जीवन ही अपने आप में एक मिसाल है, लेकिन उनके दो कार्यों ने समाज की धारा ही परिवर्तित कर दी। गुरु जी का प्रथम
कार्य था - अमृत सरोवर के मध्य श्री हरिमंदिर साहिब की स्थापना। श्रीहरिमंदिर साहिब के रूप में उन्होंने समाज को एक ऐसा आध्यात्मिक केंद्र दिया, जहां किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म का प्राणी आकर प्रभु की उपासना में हिस्सा ले सकता है। उनके मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह प्रेम था। गुरु अर्जुन देव ने श्री हरिमंदिर साहिब की नींव मुस्लिम सूफी पीर साईं मियां मीर से रखवाकर सर्व धर्म समभाव की एक अद्भुत मिसाल कायम की। यही वजह है कि आध्यात्मिक जगत में उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। उनका दूसरा महत्वपूर्ण कार्य श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन है। उन्होंने 6 गुरुओं के साथ- साथ संपूर्ण भारत के 15 भक्तों, 11 कवियों एवं 4 सिख गुरुओं की वाणी को एकत्र कर अखिल भारतीय स्वरूप का एक ऐसा महान ग्रंथ मानवता
को भेंट किया, जिसमें 12वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक का आध्यात्मिक चिंतन मौजूद है।
गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन अद्वितीय है। इसमें उनकी विद्वता झलकती है। रागों के आधार पर उन्होंने ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलना दुर्लभ है। इसके अलावा, गुरु जी के व्यक्तित्व का एक पक्ष ऐसा भी है, जिसकी चर्चा अपेक्षाकृत कम होती है और वह
पक्ष है गुरु जी की ‘जन सेवा’। मानव कल्याण के लिए वे आजीवन कार्य करते रहे। उनके हृदय में इतनी दया और संवेदना विद्यमान थी कि दुखी और पीड़ित मनुष्य को देखकर वे अत्यंत द्रवित हो जाते और यथासंभव तरीके से उसकी सेवा और सहायता करने के साथ-साथ उसका कष्ट निवारण करने में जुट जाते। तरन तारन में उनका अधिकांश समय रोगियों की सेवा में बीतता। वे दिन-रात संगत सेवा में लगे रहते थे। वे सरोवर के किनारे अपने
हाथों से रोगियों, कोढ़ियों की मरहम-पट्टी, दवादारू करते। एक बार पता चला कि समीपवर्ती गांव मुरादपुरा का चौधरी कुष्ठ रोग से पीड़ित है और उसके रिश्तेदार उसे जिंदा दरिया में बहाने ले जा रहे हैं। गुरु जी ने उन्हें ऐसा करने से रोका और चौधरी को श्री तरन तारन साहिब के पवित्र सरोवर के जल से स्नान कराया और उसकी सतत सेवा कर उसे रोगमुक्त कर दिया।
इसके बाद तो मुरादपुरा में एक कुष्ठ आश्रम स्थापित हो गया। यहां दूर-दूर से कुष्ठ रोगी आते और उनकी सेवा से भले-चंगे होकर लौटते। यहां आज भी एक कुष्ठ आश्रम काम कर रहा है और पंचम गुरु की आरंभ की गई जनसेवा की परंपरा आज भी कायम है।
डॉ. राजेंद्र साहिल्