इन्हें इस घटना के बाद संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से विरक्ति हो गई
माना जाता है कि वे सौ वर्षो तक जीवित रहे और उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में व्यतीत कर दिया।
सोलह वर्ष के एक बालक की दृष्टि जब कुल्हाड़ी से वृक्ष पर प्रहार कर रहे एक तपस्वी पर पड़ी, तो वह चीख उठा। उसने तपस्वी को ऐसा करने से रोका। उसने बताया, 'कुल्हाड़ी के प्रहार से न सिर्फ पेड़ मर जाएगा, बल्कि उस पेड़ पर रहने वाले कई निरीह जीव भी मारे जाएंगे।' तपस्वी ने जब सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, तो उस पर कई चिडिय़ां और कुछ सांप के बसेरे थे। यह बालक जैन धर्म के तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे, जिन्हें इस घटना के बाद संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से विरक्ति हो गई।
आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले पौष कृष्ण एकादशी के दिन पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। दिगंबर धर्म के मतावलंबियों के अनुसार, पार्श्वनाथ बाल ब्रह्मचारी थे, जबकि कुछ श्वेतांबर मतावलंबी उन्हें विवाहित मानते हैं। इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि माता-पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद हैं। राजा के घर में जन्म लेने के कारण उनका बचपन राजसी ठाठ-बाट के बीच व्यतीत हुआ। किशोरावस्था में ही उनके मन में जीवन के प्रति मोह के बंधन से मुक्त होने का विचार आ गया था। उन्होंने उसी समय आत्मकल्याण करने का प्रण ले लिया। इसके बाद उन्होंने मुनि-दीक्षा ले ली और वन में तप करने लगे।
चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर बन गए। माना जाता है कि वे सौ वर्षो तक जीवित रहे और उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में व्यतीत कर दिया।