मौनी अमावस्या पर ओशो का चिंतन...
मौन होना आसान नहीं। लेकिन जिसने चुप रहने की कला सीख ली, वही बोलने का हकदार बन जाता है। इसीलिए मौन होना एक क्रांतिकारी कदम है...। मौनी अमावस्या पर ओशो का चिंतन...
मौन होना आसान नहीं। लेकिन जिसने चुप रहने की कला सीख ली, वही बोलने का हकदार बन जाता है। इसीलिए मौन होना एक क्रांतिकारी कदम है...। मौनी अमावस्या पर ओशो का चिंतन...
यह बड़ा विरोधाभास है कि जिसने न बोलना सीख लिया, वही बोलने का हकदार है। जिसने चुप होना जाना, वही पात्र है कि अगर बोले तो वह सौभाग्य की बात है। लेकिन जिसने चुप होना सीख लिया, उसको हमने कभी चुप नहीं रहने दिया। क्योंकि चुप रहना क्रांतिकारी परिवर्तन है।
कहते हैं बुद्ध को जब ज्ञान प्राप्त हुआ तो वह सात दिन तक चुप रह गए। चुप्पी इतनी मधुर थी। ऐसी रसपूर्ण थी, ऐसा रोम-रोम उसमें सराबोर था कि उन्हें बोलने की इच्छा ही न जागी। कहते हैं, देवलोक थरथराने लगा। अगर सच में कहीं देवलोक होगा तो जरूर थरथराया होगा। कहते है ब्रह्मा स्वयं घबड़ा गए। बुद्ध को बोलने के लिए राजी करना ही पड़ेगा। जो भी मौन का मालिक हो गया, उसे बोलने के लिए मजबूर करना ही पड़ेगा। कहते हैं, ब्रह्मा सभी देवताओं के साथ बुद्ध के सामने मौजूद हुए। वे उनके चरणों में झुके।
देवत्व से भी ऊपर रखा गया बुद्धत्व को। क्योंकि देवता भी तरसते है बुद्ध होने को। देवता भले ही स्वर्ग में हों, वे अभी मुक्त नहीं है। अभी उनकी लालसा समाप्त नहीं हुई है। लेकिन स्वर्ग से भी गिरना होता है। सुख से भी दु:ख में लौटना होता है। सुख और दु:ख एक ही सिक्के के पहलू हैं। कोई नरक में पडा है, कोई स्वर्ग में पड़ा है। जो नरक में पड़ा है, वह नरक से बचना चाहता है। जो स्वर्ग में पड़ा है, वह स्वर्ग से बचना चाहता है। दोनों चिंतातुर हैं। दोनों
पीड़ित और परेशान है। जो स्वर्ग में पड़ा है, वह किसी लोभ के कारण वहां पहुंचा है। एक ने अपने लोभ के कारण पाप किया होंगे। एक ने लोभ के कारण पुण्य किए हैं। लोभ में फर्क नहीं है।
ब्रह्मा ने बुद्ध से कहा कि आप न बोलेंगे तो गजब हो जाएगा। एक बार यह सिलसिला हो गया, तो आप परंपरा बिगाड़ देंगे। बुद्ध सदा बोलते रहे हैं। उन्हें बोलना ही चाहिए। जो बुद्ध न बोलने की क्षमता को पा गए है, उनके बोलने में अंधेरे में भटकते लोगों को कुछ मिल सकता है। किसी तरह बड़ी मुश्किल से राजी किया बुद्ध को बोलने के लिए।
कहानी का अर्थ इतना ही है कि जब तुम मौन हो जाते हो तो अस्तित्व भी प्रार्थना करते हैं कि बोलो, कुछ तो
बोलो। मौन करुणा को जगाता है। बोलना भी अलग-अलग होता है। साधारण आदमी वासना से बोलता है, बुद्ध पुरुष करुणा से बोलते हैं। जो मौनसिद्ध है, वह करुणा से बोलता है। साधारण आदमी इसलिए बोलता है कि बोलने से शायद कुछ मिल जाए, बुद्ध पुरुष इसलिए बोलते हैं कि शायद बोलने से कुछ बंट जाए। बुद्ध इसलिए बोलते है कि तुम भी साझीदार हो जाओ उनके परम अनुभव में। पर पहले शर्त पूरी करनी पड़ती है - मौन हो जाने की।
शून्य हो जाने की।
जब ध्यान खिलता है, जब ध्यान की वीणा पर संगीत उठता है, तब मौन मुखर होता है। तब शास्त्र निर्मित
होते हैं। जिनको हमने शास्त्र कहा है, वे ऐसे लोगों की वाणी हैं, जो वाणी के पार चले गये थे। जब भी कभी
कोई वाणी के पार चला गया, उसकी वाणी शास्त्र हो जाती है। पहले तो मौन को साधो, मौन में उतरो। फिर
जल्द ही वह घड़ी भी आएगी, जहां तुम्हारे मौन से वाणी उठेगी। तब उसमें प्रामाणिकता होगी। सत्य होगा।
क्योंकि तब तुम जो भी बोलोगे, दूसरे के भय के कारण न बोलोगे।
तुम दूसरों से कुछ मांगने के लिए न बोलोगे। तब तुम देने के लिए बोलते हो, तब भय कैसा? कोई ले तो ठीक, कोई न ले तो ठीक। ले-ले तो उसका सौभाग्य,न ले तो उसका दुर्भाग्य। जो तुमने पाया, तुम बांटते गए। तुम पर
यह लांछन न रहेगा कि जब पाया तो छिपाकर बैठ गए। यह पाना कुछ ऐसा है कि इसमें बांटने की अभीप्सा साथ में ही होती है। जैसे फूल जब खिलता है, तो उस खिलने में ही गंध का बंटना भी छिपा है। बुद्ध को मौन में बोलना
ही पड़ता है। जब फूल खिलता है, सुगंध को बिखेरना ही पड़ता है। जब दीया जलता है, तो किरणें बिखरती
हैं चारों ओर। पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना अब बेहोश है - ये तीन घड़ियां आती हैं। क्योंकि जैसे ही तुम मौन
हुए, दुनिया तुम्हें दीवाना कहेगी। इधर तुम चुप हुए कि उधर खबर फैलनी शुरू हो जाएगी कि तुम पागल हो गए। अगर दुनिया तुम्हें पागल न कहे तो फिर और लोग भी इसी रास्ते पर जाने को आतुर हो जाएंगे। अगर ऐसा हो गया, तो बड़ा हेर-फेर करना पड़ेगा। जिंदगी का ढांचा ही बदलना पड़ेगा।