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महावीर स्वामी का अनेकांत दर्शन: नजरिये का खुलापन

अपनी बात को सही और दूसरों की बात को गलत मानने के कारण ही समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लेकिन महावीर स्वामी का अनेकांत दर्शन हमें किसी भी समस्या पर खुले नजरिये से सोचने की दृष्टि देता है। महावीर स्वामी ने 'अनेकांत दर्शन' की अवधारणा दी। अनेकांत की दार्शनिक परिभाषा है- 'एक

By Edited By: Published: Mon, 14 Apr 2014 11:33 AM (IST)Updated: Mon, 14 Apr 2014 11:36 AM (IST)
महावीर स्वामी का अनेकांत दर्शन: नजरिये का खुलापन

अपनी बात को सही और दूसरों की बात को गलत मानने के कारण ही समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लेकिन महावीर स्वामी का अनेकांत दर्शन हमें किसी भी समस्या पर खुले नजरिये से सोचने की दृष्टि देता है।

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महावीर स्वामी ने 'अनेकांत दर्शन' की अवधारणा दी। अनेकांत की दार्शनिक परिभाषा है- 'एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाली शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना ही अनेकांत कहलाता है।' बाद में अनेकांत की दार्शनिक परिभाषा ने व्यवहार के धरातल पर कदम रखा। संतों, महात्माओं, आचायरें ने इसकी व्यावहारिक व्याख्याएं कीं और इसे आम लोगों की सामाजिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में उपयोगी बताया।

विश्व की बड़ी-बड़ी समस्याओं के समाधान अनेकांत का सिद्धांत दे देता है। इसके अनुसार, वस्तु एक है, उसके धर्म (गुण) अनंत हैं। उस वस्तु में अनंत शक्तियां हैं, किंतु मानव की दृष्टि एकपक्षीय होने के कारण वह उसे अपने-अपने नजरिये से देखता है। आम तौर पर लोग किसी के बारे में अपनी दृष्टि को सत्य समझकर अन्य दृष्टिगत गुणों की अवहेलना करके दूसरों से लड़ते रहते हैं कि जो मैं समझ रहा हूं वही सही है और बाकी जो कह रहे हैं, वह गलत। सारी समस्याएं, द्वेष, विद्रोह मात्र इसी कारण होते हैं कि हम किसी भी बात का मात्र एक पहलू ही देखते हैं। वह पहलू, जो हमारे स्वार्थो के सबसे करीब होता है। अनेकांत सिद्धांत के अनुसार, हमारा दृष्टिकोण भी सत्य हो सकता है तथा अन्य दृष्टिकोण भी सत्य हो सकते हैं। यही अनेकांतपरक चिंतन कहलाता है, जो विद्रोहों, झगड़ों और समस्याओं से हमें मुक्त रख सकता है।

'अनेकता में एकता' भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है। किंतु वर्तमान समय में आतंकवाद, क्षेत्रवाद तथा भाषावाद जैसी समस्याएं इतनी जड़ें जमा चुकी हैं कि एक साथ मिल-जुलकर शांति से बैठने की बात तो दूर, एक -दूसरे की बातों तक को सुनने की सहनशीलता हमारे अंदर नहीं दिखती। अलगाववादी प्रवृत्तियों के कारण हर कोई स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है। लेकिन जैन साहित्य में अनेकांत की अवधारणा अत्यंत उदारवादी है, जिससे इन सभी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है।

जैन साहित्य में अनेकांत दृष्टि प्रमुख मानी जाती है। यह अनेकता में एकता स्थापित करने के लिए सभी के हितों का चिंतन करता है। अनेकांत विचार ही जैन दर्शन, धर्म और संस्कृति का प्राण है और यही इसका सर्वोदयी तीर्थ भी है।

अनेकांत दृष्टि के मूल में दो तत्व हैं- पूर्णता और यथार्थता। इसके अनुसार, जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप में प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है। देश-काल-परिस्थिति, भाषा और शैली आदि के कारण भेद का दिखाई देना अनिवार्य है, फिर भी साधारण मनुष्य आमतौर पर यथार्थवादी होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। यदि अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी दूसरे की बात सत्य है, अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी अपनी बात सत्य है, तो दोनों को न्याय कैसे मिल सकता है? इसी समस्या के समाधान के लिए अनेकांत दृष्टि का उद्भव हुआ, जिसकी मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं-

' राग-द्वेष व अन्य बातों से ऊपर उठकर तटस्थ व मध्यस्थ भाव रखना।

' जब तक इस प्रकार तटस्थ एवं मध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो, तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा करना।

विरोधी पक्ष के प्रति आदर रखकर उसके भी सत्यांश को ग्रहण करना।

अपने या विरोधी के पक्ष में, जहां जो ठीक जंचे, उनका समन्वय करना।

इस प्रकार अनेकांत दृष्टि द्वारा समाज में समन्वय लाया जा सकता है। वस्तुत: अनेकांत एक जीवन दर्शन है। जो भी सही अर्थाें में जीवन को जीता है, वह 'अनेकांत' को जीता है। इसके बिना व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या विश्व समुदाय का विकास पूरी तरह नहीं हो सकता। ज्ञान-विज्ञान की उत्कृष्टता को पूरी तरह अपनाना, किंतु उसी हद तक, जहां मानवीय मूल्यों, सांस्कृतिक एवं पारंपरिक महत्वों और मनुष्यत्व का ह्रास न हो, यही अनेकांत का मंत्र हैं।

आज स्थायी विकास की चर्चा हो रही है, किंतु प्रश्न यह है कि विकास स्थायी हो या सतत्, क्या वह सर्वोदयी है? सर्वोदय शब्द का प्रयोग सबसे पहले महावीर ने ही किया था। यह शब्द और विचार गांधी जी और विनोबा जी जैसे चिंतकों को बहुत प्रिय लगा। 'सर्वोदय' का अर्थ है सभी का विकास। हर वर्ग, हर जीव के उदय की बात अनेकांत का विकासवादी सिद्धांत ही कर सकता है। समाज के किसी भी वर्ग की उपेक्षा हो, तो अनेकांत की दृष्टि से वह छद्म विकास होगा।

विकास के अर्थो में हम अनेकांत दर्शन को सर्वोदय दर्शन के रूप में ग्रहण कर सकते हैं, जहां संस्कृति और परंपरा को अनुपयोगी बताकर उसका अवमूल्यन नहीं किया जाता, बल्कि उसे मानव जीवन, परिवार-समाज में प्राण-चेतना भरने के लिए नितांत आवश्यक माना जाता है।


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