प्रेम एक दैवीय शक्ति है जो हमें ईश्वर के करीब ले जाती है
प्रेम बहती नदी है, बंद तालाब नहीं। इसे परमार्थ के महानद में मिलने दें। स्वार्थ के संपुट में प्रेम को बंद मत करें। 'लोकधर्मÓ ही 'प्रेमधर्मÓ है। शिवलिंग में शिव को मत देखें। प्रेम के रस में पगी भक्ति की नजर से देखने पर ही सर्वत्र शिव की छवि दिखाई
प्रेम बहती नदी है, बंद तालाब नहीं। इसे परमार्थ के महानद में मिलने दें। स्वार्थ के संपुट में प्रेम को बंद मत करें। 'लोकधर्मÓ ही 'प्रेमधर्मÓ है। शिवलिंग में शिव को मत देखें। प्रेम के रस में पगी भक्ति की नजर से देखने पर ही सर्वत्र शिव की छवि दिखाई देती है।
प्रेम ऊपर चढ़े तो भक्ति है और नीचे गिरे तो आसक्ति। परमात्मा को धर्मालयों में बंद मत करें। आखिर सभी के हृदय में प्रेम की ही ज्योति दीप्तिमान है। एक समान भाव ही प्रेम का धर्म है, जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति एकता के आनंद में होती है। यही प्रेम असीम-ससीम का, निर्गुण-सगुण का, शक्ति-सौंदर्य का और रूप-रस का मंजुल समन्वय है।
प्रेम निश्छल होना चाहिए। वह चाहे संसारी प्रेम हो या परमार्थी। 'अनासक्तिÓ ही प्रेम का धर्म है, जहां प्रतिदान की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। प्रेम में केवल देना है, लेना कुछ भी नहीं। प्रेम करते समय यह अहंकार भी नहीं होना चाहिए कि वह प्रेम कर रहा है। प्रेम को तिजारत न बनने दें। ध्यान रहे कि फूल खिलता है दूसरों को आनंद देने के लिए और स्वयं मुरझाने के लिए। एक आप हो कि बिना मतलब के प्रेम करना ही नहीं जानते। प्रेम आकर्षण है और द्वेष विकर्षण। प्रेम आनंद है और द्वेष दुख। प्रेम अद्वैत है और द्वेष द्वैत। प्रेम सहकार है और द्वेष विखराव। जहां प्रेम है वहां विकास है और जहां द्वेष है वहां पतन। हृदय में प्रेम का उदय होते ही भीतर दैवी परिवर्तन होने लगता है और जीवन-धारा ही बदल जाती है। तुच्छ, अशिव और असुंदर को विराट, शिव और सुंदर बनाने के लिए सृष्टि में प्रेम का अवतरण हुआ है। वासनात्मक प्रेम वस्तुत: दैवी प्रेम की सतह पर गंदी काई की तरह है, जिसके आवरण में दिव्य प्रेम का पावन जल छिपा हुआ है। प्रेम आनंद है और जीवन इस आनंद का अविराम अनुसंधान है। हमारा सारा प्रेम शुभ के लिए है। हम वस्तु से प्रेम नहीं करते, उसमें निहित शुभ से प्रेम करते हैं। प्रेम जीवन का आधार है। इसके बिना हमारा समाज नहीं चल सकता। प्रेम ही मानवता का सबसे बड़ा गुण है। प्रेम जब सच्च और सकारात्मक भाव लिए हो तो उससे प्रबल भावना कोई और नहीं हो सकती। प्रेम ही हमें एक-दूसरे के प्रति समर्पित होने का अवसर देता है। प्रेम एक दैवीय शक्ति है जो हमें ईश्वर के करीब ले जाती है।