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भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है

वे ज्ञान, वैराग्य तथा साधुता के परम आदर्श हैं । दुष्ट दैत्यों के संहार में कालरूप हैं तो दीन - दुखियों की सहायता करने में दयालुता के समुद् हैं ।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 02 Jul 2016 04:51 PM (IST)Updated: Mon, 19 Sep 2016 11:41 AM (IST)
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है

भगवान शंकर जिसके आराध्य हों या फिर अगर कोई साधक भगवान शंकर का ध्यान करता हो तो उनके बारे में कई भाव मन में प्रस्फुटित होते हैं। भगवान शिव सौम्य प्रकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं।

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शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले यह महादेव भोलेबाबा के नाम से अपने भक्तो में प्रसिद्द है | यह महातपस्वी महा अघोरी और तंत्र मंत्र के रचियता है | तांत्रिको और अघोरियो के यह परम आराध्य है | इन्होने अनेको अवतार जनकल्याण के लिए लिया है |

नटराज रूप : इस रूप में शिवजी नृत्य करते नजर आते है | यह सबसे उत्तम नर्तक और नृत्य के जनक कहलाते है | इनका तांडव नृत्य सबसे प्रमुख है | यह तांडव दोनों रूपों में है एक प्रलयकारी तांडव जो शिव के क्रोधित होने पर किया जाता है | और अन्य सौम्य तांडव जो शिव के प्रसन्न होने पर किया जाता है |

रौद्र तांडव शिवजी करने से वो रूद्र कहलाते थे जिससे सृष्टी में महाविनाश आ जाता है |

कैसे दिखाई देते है भोलेनाथ :

जटाधारी शिव एक तपस्वी की तरह दिखते है जो माया धन से परे है | भस्म से अपना श्रंगार करते है | हलाहल विष का पान करने से यह नीलकंठ वाले है | इनकी जटाओ और शरीर पर बहुत से नाग लिपटे हुए है | रुद्राक्ष की माला जटा पर हाथो पर बंधी हई है | त्र्यम्बक शिव इसलिए कहलाते है क्योकि इनके एक तीसरी आँख भी है | इनकी जटाओ में गंगा और शीश पर अर्धचन्द्रमा सुशोभित है | माँ शक्ति के साथ इनका अर्द्नारेश्वर रूप जगत रचियता है |

भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है । वे कल्याण की जन्मभूमि, परम कल्याणमय तथा शांति के आगार हैं । वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बताया गया है । समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं । उनका यह दिव्यज्ञान स्वत:संभूत है । ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया - शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है । फिर उनसे अधिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता । वे सबके मील कारण. रक्षक, पालक तथा नियंता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं । उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं । वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करनेवाले हैं, इसलिए वे समस्त कल्याण और मंगल के मूल कारण हैं ।

भगवान शंकर दिग्वसन होते हुए भी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होने पर भी भस्म विभूषण, श्मशान वासी होने पर भी त्रैलोक्याधिपति, योगिराज होने पर भी अर्धनारीश्वर, पार्वती जी के साथ रहने पर भी कामजित तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं । आशुतोष और औढरदानी होने के कारण वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के संपूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान, विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं । कृपालुता का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है ।

प्राय: सभी पुराणों में भगवान शिव के दिव्य और रमणीय चरित्रों का चित्रण हुआ है । संपूर्ण विश्व में शिवमंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयंभूलिंग से लेकर छोटे - छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा उनकी लोकप्रियता का अद्भुत उदाहरण है । भगवान शिव का परिवार बहुत बड़ा है । वहां सभी द्वंद्वों और द्वैतों का अंत दिखता है । एकादश रुद्र, रुद्राणियां, चौंसठ योगिनियां, षोडश मातृकाएं, भैरवादि इनके सहचर तथा सहचरी हैं । माता पार्वती की सखियों में विजया आदि प्रसिद्ध हैं । गणपति - परिवार में उनकी पत्नी सिद्धि - बुद्धि तथा शुभ और लाभ दो पुत्र हैं । उनका वाहन मूषक है । कार्तिकेय की पत्नी देवसेना तथा वाहन मयूर है । भगवती पार्वती का वाहन सिंह है और स्वयं भगवान शंकर धर्मावतार नंदी पर आरूढ़ होते हैं । स्कंदपुराण के अनुसार यह प्रसिद्ध है कि एक बार भगवान धर्म की इच्छा हुई कि मैं देवाधि देव भगवान शंकर का बाहन बनूं । इसके लिए उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की । अंत में भगवान शंकर ने उन पर अनुग्रह किया और उन्हें अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया । इस प्रकार भगवान धर्म ही नंदी वृषभ के रूप में सदा के लिए भघवान शिव के वाहन बन गये । ‘वृषो हि भगवान धर्म: ।’

बाण, रावण, चंडी, भृंगी आदि शिव के मुख्य पार्षद हैं । इनके द्वाररक्षक के रूप में कीर्तिमुख प्रसिद्ध हैं, इनकी पूजा के बाद ही शिव - मंदिर में प्रवेश करके शिवपूजा का विधान है । इससे भगवान शंकर परम प्रसन्न होते हैं । यद्यपि भगवान शंकर सर्वत्र व्याप्त हैं तथापि कासी और कैलाश इनके मुख्य स्थान हैं । भक्तों के हृदय में तो ये सर्वदा निवास करते हैं । इनके मुख्य आयुध, त्रिशूल, टंक (छेनी), कृपाण, वज्र, अग्नियुक्त कपाल, सर्प, घंटा, अंकुश, पाश तथा पिनाक धनुष हैं ।

भगवान शंकर के चरित्र बड़े ही उदात्त एवं अनुकम्पापूर्ण हैं । वे ज्ञान, वैराग्य तथा साधुता के परम आदर्श हैं । आप भयंकर रुद्ररूप हैं तो भोलानाथ भी हैं । दुष्ट दैत्यों के संहार में कालरूप हैं तो दीन - दुखियों की सहायता करने में दयालुता के समुद्र हैं । जिसने आपको प्रसन्न कर लिया उसको मनमाना वरदान मिला । रावण को अटूट बल दिया । भस्मासुर को सबको भस्म करने की शक्ती दी । यहि भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण करके सामने न आते तो स्वयं भोलानाथ ही संकटग्रस्त हो जाते । आपकी दया का कोई पार नहीं है । मार्कण्डेय जी को अपनाकर यमदूतों को भगा दिया । आपका त्याग अनुपम है । अन्य सभी देवता समुद्र - मंथन निकले हुए लक्ष्मी, कामधेनु, कल्पवृक्ष और अमृत ले गये, आप अपने भाग का हलाहल पान करके संसार की रक्षा के लिए नीलकण्ठ बन गये । भगवान शंकर एकपत्नीव्रत के अनुपम आदर्श हैं । माता सती ही पार्वतीरूप में आपकी अनन्य पत्नी हैं । इस पद को प्राप्त करने के लिए इस देवी ने जन्म - जन्मान्तरतक घोर तप किया । भूमंडल के किसी साहित्य में पति - पत्नी के संबंध का ऐसा ज्वलंत उदाहरण नहीं है ।

भगवान शिव योगियों के भी महायोगी हैं । योगशास्त्र का संपूर्ण चमत्कार इन्हीं की अनुपम कीर्ति है । योगियों की आयु बढ़ाने के लिए आपने पारद - शास्त्र का आविष्कार किया । इस शास्त्र की साधना के द्वारा योगी जब चाहे अपना कायाकल्प करके अपनी आयु सहस्त्रों वर्ष तक बढ़ा सकता है । भगवान शंकर इस योग - विद्या और ज्ञान के आदि आविष्कारक हैं । ये ही संगीत और नृत्यकला के भी आदि आचार्य हैं । ताण्डव नृत्य करते समय इनके डमरू से सात स्वरों का प्रादुर्भाव हुआ । इनका ताण्डव ही नृत्यकला का प्रारंभ है । व्याकरण के मूल तत्त्वों का विकास भी शिवजी की डमरू ध्वनि का ही परिणाम है । इस प्रकार भगवान शंकर कितनी ही विद्याओं और कलाओं के जन्मदाता और प्रवर्तक हैं ।

संस्कृत साहित्य में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं है, जिसमें भगवान शंकर के चरित्र का उल्लेख न हो । ये ही देवों में देव महादेव तथा आर्यजाति के आद्य देवता हैं । जहां - जहां आर्यजाति की संस्कृति की पहुंच हुई है, वहां वहां भगवान शिव की स्थापना हुई है । इनकी अक्षय कीर्ति, लीला, ज्ञानवत्ता आदि के वर्णन से सभी सास्त्र और पुराण मंडित हैं ।

लिंगरूप से आपकी उपासना का तात्पर्य यह है कि शिव, पुरुष लिंगरूप से इस प्रकृति रूपी संसार में स्थित है । यहीं सृष्टि की उत्पत्ति का मूलरूप है । ‘त्रयम्बकं यजामहे’ शिव उपासना का वेदमंत्र है । ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे पहले शिव मंदिरों का ही उल्लेह है । जब भगवान श्रीरामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई की, तब सबसे पहले ‘रामेश्वरम्’ के नाम से भगवान शिव की स्थापना और पूजा की थी । काशी में विश्वनाथ की पूजा अत्यंत प३ाचीन है । इस प्रकार भगवान शंकर आर्यजाति की सभ्यता और संस्कृति के पूरे उदाहरण हैं । हिमालय पर्वत पर निवास भौगोलिक संकेत है । तप, योग करना आर्यसंस्कृति का प्रधान सिद्धांत है और आध्यात्मिक ज्ञान - उपदेश आर्यसंस्कृति प्रधान तत्त्व है ।


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