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जीवन-मंत्र

हे अर्जुन। मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। भावार्थ : श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में अर्जुन को निष्काम कर्म योग की शिक्षा दी है। निष्काम कर्म करना सरल नहीं है, इसी कारण श्रीकृष्ण ने उसे संभव

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 27 May 2015 11:46 AM (IST)Updated: Wed, 27 May 2015 11:53 AM (IST)

मयि सर्वाणि कर्माणि, सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।

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निराशीर्निर्ममो भूत्वा, युध्यस्व विगतज्वर: ॥

निर्झरिणी

जिस प्रकार श्रम करने से शरीर मजबूत होता है, उसी प्रकार कठिनाइयों से जूझने से मन-मस्तिष्क मजबूत होता है...

- सेनेका, रोमन दार्शनिक

अर्थ : हे अर्जुन। मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर। भावार्थ : श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में अर्जुन को निष्काम कर्म योग

की शिक्षा दी है। निष्काम कर्म करना सरल नहीं है, इसी कारण श्रीकृष्ण ने उसे संभव बनाने के लिए ईश्वर का संबल दिया है।

व्यक्ति जब भी कर्म करता है, तो वह विशुद्ध कर्म नहीं कर पाता। क्योंकि उस कर्म से वह फल की उम्मीद करने लगता है, कभी कर्म करने में उसके भीतर के भाव जोर मारने लगते हैं। मोह-माया उसे जकड़ने लगती है। चित्त पर पड़े हुए इन आवरणों के कारण व्यक्ति दत्तचित्त नहीं हो पाता और वह निष्काम कर्म नहींकर पाता।

हमारा काम पूरी गुणवत्ता पूर्ण हो, इसके लिए हमें अपने चित्त को एक जगह एकाग्र करना होगा। एकाग्रता में हमारे मनोभाव बाधक न बनें, इसलिए हम इसके लिए ईश्वर का संबल ले सकते हैं।

मन

आपके जलाये हुए दीये से सिर्फ आपको ही प्रकाश नहीं मिलता, इससे आस-पास का क्षेत्र भी प्रकाशित हो उठता है। इसी तरह अगर आपके मन में सकारात्मकता का दीया जलता है, तो इसका उजाला आपके साथ-साथ आपके संपर्क में आने वाले लोगों तक भी अवश्य पहुंचता हैं।

कर्म

कई बार हम बहुत अधिक उत्साह में कुछ कार्य कर जाते हैं। यह बुरा नहीं है, लेकिन बिना नतीजे के उत्साहित होना अच्छा नहीं। सोच-समझकर काम करने से चीजों को बारीकी से समझनेमें आसानी होती है।

वचन

अगर सामने वाला व्यक्ति क्रोध में आपसे कुछ कटु वचन बोल रहा है, तो प्रतिक्रिया देने की बजाय खुद को शांत रखें। प्रतिक्रिया देकर उसे और उग्र करने की बजाय आप वाणी पर संयम रखकर उसे शांत और शर्मिंदा होने को मजबूर कर सकते हैं। चलकर यह समझ अपने-आप विकसित होने लगती है कि जीवन में किस तरह के बदलाव होने चाहिए।


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