Move to Jagran APP

किसी भी पूजा में हम उपवास रखते हैं, जानें क्‍यों है ये इतना महत्‍वपूर्ण

हमारे देश में भक्ति व उपासना का एक रूप उपवास हैं। मनुष्य में संयम, त्याग, प्रेम व श्रद्धा की भावना को बढ़ाते हैं नवरात्रि में माता की आराधना के साथ ही व्रत-उपवास और पूजन का विशेष महत्व है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 28 Sep 2016 12:33 PM (IST)Updated: Thu, 29 Sep 2016 09:32 AM (IST)
किसी भी पूजा में हम उपवास रखते हैं,  जानें क्‍यों है ये इतना महत्‍वपूर्ण

हमारे देश में भक्ति व उपासना का एक रूप उपवास हैं। मनुष्य में संयम, त्याग, प्रेम व श्रद्धा की भावना को बढ़ाते हैं नवरात्रि के दौरान माता की आराधना के साथ ही व्रत-उपवास और पूजन का विशेष महत्व है। उपवास तरह-तरह का हो सकता है। यह बहुत छोटी अवधि से लेकर महीनों तक का हो सकता है। उपवास के अनेक रूप हैं। धार्मिक एवं अध्यात्मिक साधना के रूप में प्रागैतिहासिक काल से ही उपवास का प्रचलन है। वास्तव में उपवास क्या होता है? भोजन के बिना कुछ अवधि तक रहना उपवास कहलाता है। उपवास पूर्ण या आंशिक हो सकता है।

loksabha election banner

जैसा कि नवरात्रि पर उपवास धार्मिक होता है, जो एकादशी, संक्रांति तथा ऐसे ही पर्वों के दिनों पर भी किया जाता है। ऐसे उपवासों में दोपहर को दूध की बनी हुई मिठाई तथा शुष्क और हरे दोनों प्रकार के फल खाए जा सकते हैं।

उपवास कई प्रकार का हो सकता है। कुछ निर्जल उपवास होते हैं। इनमें दिनभर न तो कुछ खाया जाता है और न जल पिया जाता है। रोगों में भी उपवास कराया जाता है, जिसको लंघन कहते हैं। आजकल राजनीतिक उपवास भी किए जाते हैं जिन्हें "अनशन" कहते हैं।

अनशन भी एक प्रकार का उपवास है? जी हां! इसका उद्देश्य सरकार की दृष्टि को आकर्षित करना और उससे वह कार्य करवाना होता है जिसके लिए उपवास किया जाता है। कभी-कभी भोजन न मिलने पर विवश होकर भी उपवास करना पड़ता है।

लाभकारी है उपवास? उपवास में कुछ दिनों तक शारीरिक क्रियाएं संचित कार्बोहाइड्रेट पर, फिर विशेष संचित वसा पर और अंत में शरीर के प्रोटीन पर निर्भर रहती हैं। मूत्र और रक्त की परीक्षा से उन पदार्थों का पता चल सकता है, जिनका शरीर उस समय उपयोग कर रहा होता है।

उपवास का प्रत्यक्ष लक्षण है व्यक्ति की शक्ति का निरंतर ह्रास। शरीर की वसा घुल जाती है, पेशियां क्षीण होने लगती हैं। उठना, बैठना, करवट लेना आदि व्यक्ति के लिए दुष्कर हो जाता है और अंत में मूत्ररक्तता (यूरीमिया) की अवस्था में चेतना भी जाती रहती है। रक्त में ग्लूकोज की कमी से शरीर क्लांत तथा क्षीण होता जाता है और अंत में शारीरिक यंत्र अपना काम बंद कर देता है।

1943 की अकाल पीड़ित बंगाल की जनता का विवरण बड़ा ही भयावह है। इस अकाल के सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण बड़े ही रोमांचकारी हैं। किंतु उसका वैज्ञानिक अध्ययन बड़ा शिक्षाप्रद था। दुर्भिक्षितों के संबंध में जो अन्वेषण हुए उनसे उपवास विज्ञान को बड़ा लाभ हुआ। एक दृष्टांत यह है कि इन अकाल पीड़ितों के मुंह में दूध डालने से वह गुदा द्वारा जैसे का तैसा तुरंत बाहर हो जाता था। जान पड़ता था कि उनकी अंतड़ियों में न पाचन रस बनता था और न उनमें कुछ गति (स्पंदन) रह गई थी। ऐसी अवस्था में शिराओं (वेन) द्वारा उन्हें भोजन दिया जाता था। तब कुछ काल के बाद उनके आमाशय काम करने लगते थे और तब भी वे पूर्व पाचित पदार्थों को ही पचा सकते थे। धीरे-धीरे उनमें दूध तथा अन्य आहारों को पचाने की शक्ति आती थी। इसी प्रकार विश्वयुद्धों के दौरान जिन देशों में खाद्य वस्तुओं पर बहुत नियंत्रण था और जनता को बहुत दिनों तक पूरा आहार नहीं मिल पाता था उनमें भी उपवसजनित लक्षण पाए गए और उनका अध्ययन किया गया। इन अध्ययनों से आहार विज्ञान और उपवास संबंधी ज्ञान में विशेष वृद्धि हुई। ऐसी अल्पाहारी जनता का स्वास्थ्य बहुत क्षीण हो जाता है। उनमें रोग प्रतिरोधक शक्ति नहीं रह जाती। गत विश्वयुद्ध में उचित आहार की कमी से कितने ही बालक अंधे हो गए, कितने ही अन्य रोगों के ग्रास बने।

उपवास पूर्ण हो या अधूरा, थोड़ी अवधि के लिए हो या लंबी अवधि के लिए, चाहे धर्म या राजनीति पर आधारित हो, शरीर पर उसका प्रभाव अवधि के अनुसार समान होता है। दीर्घकालीन अल्पाहार से शरीर में वे ही परिवर्तन होते हैं जो पूर्ण उपवास में कुछ ही समय में हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा एक ऐसी प्रणाली है जिसमें प्राकृतिक रूप से उपचार किया जाता है। इसमें बाहरी दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता। वस्तुतः यह गौर फरमाने वाली बात है। जब हम प्राकृतिक रूप छोड़ आप्रकृतिक रूप से जीवन शैली अपनाते हैं तो शरीर में कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं जिससे हम रोगी हो जाते हैं। रोग सबकी परेशानी है। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा हम इन्हीं दोषों को शरीर से बाहर कर रोगी को निेरोगी बनाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में कई प्रकार के उपचार किए जाते हैं जिनमें एक उपचार ‘‘उपवास’ है अर्थात् भोजन त्याग कर रोग का उपचार।

उपवास के द्वारा हम तरह-तरह के रोगों को दूर कर सकते हैं। वैसे भी यह सत्य है कि जब हमारा पेट खराब हो जाता है या हमें कभी ज्वर आदि होता है तो हमारी भूख समाप्त हो जाती है अर्थात प्रकृति रोग को दूर करने के लिए हमें उपवास करने का निर्देश देती है।

सिर्फ भूखा रहना उपवास नहीं है? पर हम हैं कि इस निर्देश को समझते ही नहीं और भूख को पुनः खोलने के लिए तरह-तरह की बाहरी दवाओं का प्रयोग करने लगते हैं। पर वास्तविकता विपरीत है। दवा थोड़ी देर के लिए तो काम करती है लेकिन जैसे ही दवा का असर समाप्त हो जाता है रोग फिर वहीं का वहीं आ जाता है। यही स्थिति खतरे का ऐलान करती है। ऐसे खतरे से बचने के लिए सब से उत्तम उपचार व उपाय ‘उपवास’ है।

वास्तव में रोग जो बाहरी रूप से हमें परेशान करता लगता है वहीं भीतरी रूप से हमें रोग मुक्त करने का काम कर रहा होता है। अर्थात उपवास के द्वारा प्रकृति हमारे शरीर में बनने वाले विजातीय तत्वों को बाहर निकालने का काम कर रही होती है।क्या सत्य में उपवास के द्वारा हम अपनी बीमारियां दूर कर सकते हैं? असल में इसलिए जब पेट में भारीपन हो, ज्वर हो तो खाना छोड़ देने से भीतर के गंदे तत्व अपवर्जित पदार्थों के द्वारा अपने आप बाहर निकल जाते हैं और व्यक्ति को आराम मिलता है। प्रकृति नियमों का विरोध नहीं करती, हम ही लापरवाही कर प्रकृति की चेतावनी की ओर ध्यान नहीं देते और रोग होने पर भी खाते-पीते रहते हैं जिसका प्रभाव उल्टा होता है भोजन पच नहीं पाता और उल्टी या जी मिचलाने लगता है। ऐसिडिटी हो जाती है।

इसलिए रोग की हालत में जहां तक हो सके भोजन छोड़ देना चाहिए इससे किसी को कोई हानि नहीं होती। रोग की स्थिति में पशु-पक्षी भी खाना छोड़ देते हैं और जल्द ही निरोगी हो जाते हैं ऐसा देखा गया है।

उपवास की प्रक्रिया क्या होती है, इस बात का जवाब अलग अलग लोग अलग-अलग प्रकार से देते हैं। उपवास में भोजन छोड़ने को कहा जाता है लेकिन पानी पीना छोड़ने के लिए नहीं। इसलिए उपवास करने वाले व्यक्ति को हर एक घंटे बाद एक गिलास पानी अवश्य पीना चाहिए। यदि पानी में नींबू निचोड़ कर दिया जाय तो यह बहुत लाभकारी है। पानी पीने से पेशाब तो आता है लेकिन पाखाना नहीं। ऐसी स्थिति में आंतों में जमा मल फूलने लगता है, क्योंकि आंतों में कमजोरी होने के कारण वह बाहर नहीं निकल पाता, इसलिए यह मल एनिमा लगाकर निकाला जा सकता है। उपवास में शरीर के भीतर का मल पचने लगता है। भीतर की अग्नि उसको भस्म करने लगती है और रोगी नई ऊर्जा प्राप्त करने लगता है। मोटे व्यक्ति के लिए तो उपवास विशेष लाभकारी है क्योंकि चर्बी भीतर की अग्नि में जलने लगती है और मोटापा कम होने लगता है।

शारीरिक ऊर्जा पेशियों, रक्त, जिगर के विजातीय द्रव्यों को भी जला देती है। शारीरिक ताप उपवास के कारण शांत रहता है। उपवास की अवधि रोगी की शारीरिक, मानसिक शक्ति और रोग पर निर्भर करती है। वैसे उपवास कम से कम दो-तीन दिन या एक सप्ताह और अधिक से अधिक दो माह तक किया जा सकता है। कमजोर शरीर वाले रोगियों को दो-तीन दिन से एक सप्ताह तक के उपवास में रहने को कहा जाता है और भारी या शक्तिशाली शरीर वाले व्यक्ति को दो माह तक के उपवास के लिए प्रेरित किया जाता है।

इसी प्रकार नए रोग में उपवास की अवधि तीन दिन से एक सप्ताह और पुराने रोगों में लंबे समय के उपवास की सलाह दी जाती है। इसलिए चिकित्सक को रोगी की शारीरिक और मानसिक क्षमता की डॉक्टरी जांच करवा उपचार के लिए प्रेरित करना चाहिए। उपवास तोड़ने में निम्न बातों को अपनाना चाहिए। अनार, सेब, अंगूर आदि मौसमी फलों के रस का सेवन कर उपवास तोड़ना चाहिए। रोटी-दाल सब्जी आदि ठोस पदार्थ न खाएं। फलों का रस अवधि प्रक्रिया के हिसाब से लेना चाहिए जैसे यदि उपवास एक माह का है तो उपवास के बाद एक सप्ताह तक फलों का रस पिएं। फलों के रस के बाद उबली हुई बिना मसाले की सब्जियां लेनी चाहिए। सब्जियों के लगभग एक सप्ताह बाद रोटी-चावल आदि लेना चाहिए। प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन न करें। प्रातः काल हल्का फुल्का नाश्ता लेना चाहिए। दोपहर का भोजन हल्का और एक से दो के बीच लेना चाहिए। रात्रि में शाम सात से आठ बजे तक हल्का भोजन करना चाहिए।

खाने के बाद कम से कम सौ कदम सैर करनी चाहिए। रात्रि भोजन के कम से कम दो घंटे बाद सोना चाहिए। उपवास के लाभ और भी हैं जैसे: शरीर की अतिरिक्त चर्बी जल कर समाप्त होती है जिससे मोटापा कम होता है और मोटापा नहीं होता। कायाकल्प होकर व्यक्ति के शरीर को नवीनता मिलती है। शरीर की तिरिक्त गर्मी शांत होती है और रोगों का नाश होता है। शरीर में रोग विरोधी ताकत बढ़ती है। मांसपेशियों, मस्तिष्क, जननेन्द्रिय आदि को अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त होती है। विचारों में भी शुद्धता आती है। स्मरण शक्ति की बढ़ोत्तरी होती है। शरीर में स्फूर्ति आने लगती है। कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। उपवास में निम्न सावधानियां आवश्यक हैं यथा:

उपवास करने से पहले उपवास के विषय में पूरी जानकारी हासिल करनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ से पूरी जानकारी लें या किसी विशेषज्ञ की देखरेख में उपवास करें। उपवास रखने से पहले अपने आप को सही तरीके से तैयार करें। यदि उपवास एक या दो माह के लिए करना है तो उपवास की अवधि को धीरे-धीरे बढ़ाएं अर्थात् खाना धीरे-धीरे छोड़ें।

शुरू में जितना खाना आप प्रतिदिन खाते हैं उसे धीरे-धीरे प्रतिदिन कम करते जाएं और पूर्ण उपवास में आएं। उपवास से पहले अपने शरीर की डॉक्टरी जांच करवाएं, जैसे ब्लड प्रेशर, ब्लड शूगर आदि अन्यथा उपवास हानिकारक हो सकता है। यदि उपवास रखने पर शरीर में कमजोरी महसूस हो तो उपवास तोड़कर नींबू संतरे का रस लेना चाहिए। उपवास की अवधि में स्वप्न, ध्यान, मुंह साफ करना आदि के कार्य नित्य नियम से करते रहना चाहिए। दांतों की सफाई, जीभ की सफाई नित्य करते रहना चाहिए।

उपवास अवधि में शरीर के कई प्रकार के विजातीय उपद्रव शुरू हो जाते हैं जैसे नींद न आना, कमजोरी महसूस होना, हल्की हरारत हो जाना, सिर दर्द होना व जलन आदि। पर इससे घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यह अपने आप ही ठीक हो जाते हैं। ऐसे में एनिमा काफी लाभकारी होता है। इतनी लाभकारी जानकारियों के बाद देर किस बात की फ़ौरन शुरू करिये उपवास। जो न सिर्फ धार्मिक होगा वरन् वैज्ञानिक तथा चिकित्सा के लिए भी बहुत अच्छा होता है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.