यही उस परमात्मा की सच्ची सेवा कहलाएगी
इस संसार में आकर मनुष्य को मालिक समझने की भूल कदापि नहीं करना चाहिए। इसलिए कि इस जगत की एक-एक वस्तु ईश्वर की बनाई हुई है।
परमात्मा का सेवक बनकर सभी कार्यों को करते रहने से मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठता की ओर ले जाता है। इस जगत को परमात्मा का साकार रूप समझकर इस प्रकार अपना जीवनयापन करना चाहिए कि वे प्रभु ही इस जगत के एकमात्र मालिक हैं और मैं उनका एक छोटा सा सेवक हूं। सेवा का भाव मन में रखना उत्तम है।
ऐसा विचार मन में जाग्रत हो कि हर हाल में परमात्मा के आदेशों का पालन करता हुआ अपना जीवन जिया जाए। इस संसार में आकर मनुष्य को मालिक समझने की भूल कदापि नहीं करना चाहिए। इसलिए कि इस जगत की एक-एक वस्तु ईश्वर की बनाई हुई है। ईश्वर ही इस प्रकृति के रचनाकर्ता हैं और वह ही इस प्रकृति की रचना को क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं और पलभर में एक नई रचना पुन: रच सकते हैं। इस सामथ्र्यवान ईश्वर के हाथ में सभी कुछ है। जो इस सत्य को न समझने की भूल करते हैं और स्वयं को सर्वशक्तिमान मानने लगते हैं, वे मनुष्य दंड के पात्र बनते हैं।
उनके अनुसार यह संसार उनकी जागीर है परमात्मा सर्वशक्तिमान है। शक्ति और सामथ्र्य हेाते हुए भी वह सभी पर दया करता है। वह दया का सागर है, प्रेम का भंडार है। उससे कोई प्रीति करे न करे, वह सबसे प्रीत करता है। भगवान तो अपने सेवक पर अति प्रीत रखते हैं।
भगवान के चरणों में मन लगाकर उनकी सेवा में तत्पर रहने का भाव अति उत्तम है। सारे संसार का राज्य मिल जाए, यहां तक कि यदि तीनों लोकों का राज्य भी मिल जाए तो भी भगवान का सेवक बनने के सामने तुच्छ है। दुनिया का कोई भी वैभव, धन-दौलत, ऐश्वर्य ईश्वर के समक्ष तुछ है यहां तक कि हमारा अपना भौतिक नश्वर जीवन भी। ईश्वर की आराधना ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक माया-मोह में पड़े बिना ईश्वर की सतत रूप से आराधना करे। निष्कपट भाव से किसी स्वार्थ के बगैर ईश्वर के प्रति सेवारत होना जीव को उच्चतम अवस्था में ले जाता है। इस संसार में किसी स्वार्थ व दिखावे के बगैर सभी में ईश्वर के अंश का दर्शन करना चाहिए। परमात्मा की सेवा में रहने का भाव रखकर समाज के असहाय, निर्धन और रोगी आदि की सहायता करते रहना चाहिए। यही उस परमात्मा की सच्ची सेवा कहलाएगी।