गीता ज्ञान
विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे लगाव हो जाता है। इससे उनमें इच्छा पैदा होती है और इच्छाओं से क्रोध का जन्म होता है।
विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे लगाव हो जाता है। इससे उनमें इच्छा पैदा होती है और इच्छाओं से क्रोध का जन्म होता है।
भावार्थ : हमारे भीतर क्रोध तभी पैदा होता है, जब हमारी इच्छा के विरुद्ध परिणाम आता है। इच्छाओं को हम स्वयं भी पैदा करते हैं, क्योंकि हम जिसे (विषयों को) पाना चाहते हैं, उससे लगाव पैदा कर लेते हैं। लगाव होने से हम उससे इस कदर जुड़ जाते हैं कि जब हमें वह चीज नहीं मिलती, तो हम इसका गुस्सा कभी दूसरे पर तो कभी अपने पर निकालने लगते हैं। इसलिए क्रोध से बचने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम किसी व्यक्ति से, किसी वस्तु से या किसी विचार से लगाव न करें। हम प्रेम कर सकते हैं, पर लगाव नहीं। प्रेम में पाने की इच्छा नहीं होती, जबकि लगाव हमें भावनात्मक तौर पर उससे जोड़ देता है। ऐसे में जब भी हमारी भावना आहत होगी, तो क्रोध तो उपजेगा ही।
मन
हमारा मन दर्पण के समान है। भले-बुरे कर्मों का आगाज मन से ही शुरू होता है। इससे कोई भी बात छिप नहीं सकती है। यही सब का आधार है। यदि बुरे कर्मों से तौबा करना चाहते हैं, तो मन को कठोर करना होगा। उसे अच्छा कर्म करने के लिए प्रेरित करना होगा।
वचन
संत कबीरदास कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं। जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
कर्म
जिंदगी में अक्सर हम खास परिस्थितिओं में निराशा का अनुभव करते हैं। हमें लगता है कि सब कुछ खत्म हो चुका है और आगे कुछ भी करना बेकार है। सोने को अत्यधिक तपाया जाता है, तभी वह कुंदन बनता है। संघर्ष की आंच में तपने के बाद ही हम सच्चे इंसान बनते हैं।