अहं का त्याग है सुख
दुखों के बिना आत्मविकास नहीं होता, लेकिन यदि हम दुखों का अहसास किए बिना यह करिश्मा करना चाहते हैं, तो हमें अहंकार को छोड़ना होगा...
चेतना की परिधि में की गई कोई भी प्रगति आत्म-विकास है। आत्म-विकास का अर्थ है दुख के मार्ग पर बढ़ते जाना, दुख का अंत करना नहीं। यदि आप इसे ध्यानपूर्वक देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि दुख ही हमारे आत्मविकास में सहायक बनते हैं। यदि मन संपूर्ण दुख से मुक्त होना चाहता है, तो फिर मन को करना क्या होगा?
हम केवल बीमारियों और अस्वस्थता से ही दुखी नहीं रहते, बल्कि अपने अकेलेपन और आंतरिक गरीबी के कारण भी दुखी रहते हैं। हम दुखी रहते हैं, क्योंकि हमें कोई प्रेम नहीं करता। जब हम किसी से प्रेम करते हैं और जवाब में प्रेम नहीं मिलता तो हम दुखी हो जाते हैं। यानी कोई भी अप्रिय परिस्थिति हो, हम दुख से भर जाते हैं। हम इस दुख से बचने की कोशिश करते हैं। इसलिए हम किसी विश्वास को थाम लेते हैं, जिससे बंधकर रह जाते हैं। उसे हम धर्म कह देते हैं। यदि हम यह देख पाएं कि प्रगति व आत्म-सुधार के साथ-साथ दुख का अंत संभव नहीं है, तो फिर मन करे क्या? क्या मन इस चेतना के पार जा सकता है, तरह-तरह की व्यग्रताओं और विरोधाभासी इच्छाओं के पार? क्या इसमें समय लगेगा? इसे समझिए। यदि यह समय का मामला है तो आप पुन: उस घेरे में आ जाते हैं, जिसे प्रगति कहते हैं। क्या आप यह देख पा रहे हैं कि चेतना की परिधि में, किसी भी दिशा में उठाया गया कदम आत्म-विकास ही होता है? इसीलिए वहां दुख की निरंतरता बनी रहती है। दुख को नियंत्रित व अनुशासित किया जा सकता है, उसका दमन किया जा सकता है, उसे युक्तिसंगत तथा अत्यंत परिष्कृत बनाया जा सकता है, परंतु दुख की अंतर्निहित प्रबलता तब भी बनी रहती है। दुख से मुक्त होने के लिए, उसकी इस प्रबलता से, इसके बीज ‘मैं’ से, अहं से, कुछ बनने या होने के इस संपूर्ण उपक्रम से मुक्त होना होगा। पार जाने के लिए इस प्रक्रिया पर विराम लगना आवश्यक है।
जे. कृष्णमूर्ति