हीनता से निकलें बाहर
अल्फ्रेड एडलर ने बताया था कि मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ उसका हीनता बोध है। दूसरों से तुलना करके हम अपनी हीनताएं ही देखते रहते है, श्रेष्ठता देखने के लिए हमें तुलना करना छोड़ना होगा..। ओशो का चिंतन.. इस सदी के एक बड़े मनोविज्ञानी अल्फ्रेड एडलर ने पाया कि मनुष्य के जीवन की सारी उलझनों का मूल स्नोत हीनता की ग्रंथि में होता है।
अल्फ्रेड एडलर ने बताया था कि मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ उसका हीनता बोध है। दूसरों से तुलना करके हम अपनी हीनताएं ही देखते रहते है, श्रेष्ठता देखने के लिए हमें तुलना करना छोड़ना होगा..। ओशो का चिंतन..
इस सदी के एक बड़े मनोविज्ञानी अल्फ्रेड एडलर ने पाया कि मनुष्य के जीवन की सारी उलझनों का मूल स्नोत हीनता की ग्रंथि में होता है। हीनता की ग्रंथि का अर्थ है कि जीवन में आप कहीं भी रहें, कैसे भी रहें, सदा मन में यह पीड़ा बनी रहती है कि कोई आपसे आगे है, कोई आपसे ज्यादा है, कोई आपसे ऊपर है। इसकी चोट भीतर के प्राणों में घाव बना देती है। फिर आप जीवन के आनंद को भोग नहीं सकते।
हीनता की ग्रंथि (इनफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) अगर एक ही होती, तब भी ठीक था। तब शायद कोई उपाय किया जा सकता था। अल्फ्रेड एडलर ने तो हीनता की ग्रंथि शब्द का प्रयोग किया है, पर मैं तो 'हीनताओं की ग्रंथियां' कहना पसंद करूंगा। क्योंकि कोई हमसे ज्यादा सुंदर है। किसी का स्वर कोयल जैसा है और हमारा नहीं। कोई हमसे ज्यादा लंबा है, कोई हमसे ज्यादा स्वस्थ है। किसी के पास ज्यादा धन है, किसी के पास ज्यादा ज्ञान है, किसी के पास ज्यादा त्याग है। कोई संगीतज्ञ है, कोई चित्रकार है, कोई मूर्तिकार है। करोड़ों लोग हैं हमारे चारों तरफ और हर आदमी में कुछ न कुछ खूबी है। जिसके भीतर हीनता की ग्रंथि है, उसकी नजर सीधे दूसरों की खूबी पर जाती है, क्योंकि जाने-अनजाने वह हमेशा तौल रहा है कि मैं कहीं किसी से पीछे तो नहीं हूं। उसकी नजर झट से पकड़ लेती है कि कौन-सी बात है, जिसमें मैं पीछे हूं। जितने लोग हैं, उतनी ही हीनताओं का बोझ हमारे ऊपर पड़ जाता है। हीनताओं की एक भीड़ हमें चारों तरफ से दबा लेती है, हम उसी के भीतर तड़पते रहते हैं और बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझता।
एक बार एक आदमी ने मुझसे कहा, 'बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। दो साल पहले अपनी प्रेयसी के साथ समुद्र तट पर बैठा था। एक आदमी आया, उसने पैर से रेत मेरे चेहरे पर उछाल दी और मेरी प्रेयसी से हंसी-मजाक करने लगा।' मैंने पूछा, 'तुमने कुछ किया?' उसने कहा, 'क्या कर सकता था? मेरा वजन सौ पौंड का, उसका डेढ़ सौ पौंड।'
'फिर भी, तुमने कुछ तो किया होगा?'
उसने कहा, 'मैंने स्त्रियों के बारे में सोचना ही छोड़ दिया, हनुमान अखाड़े में भर्ती हो गया। दंड-बैठक लगाने से दो साल में मेरा भी वजन डेढ़ सौ पौंड हो गया। फिर मैंने एक स्त्री खोजी। समुद्र तट पर गया। वहां बैठा भी नहीं था कि एक आदमी आया, उसने फिर लात मारी रेत में, मेरी आंखों में धूल भर दी और मेरी प्रेयसी से हंसी-मजाक करने लगा।'
मैंने कहा, 'अब तो तुम कुछ कर सकते थे।'
उसने कहा, 'क्या कर सकते थे? मैं डेढ़ सौ पौंड का, वह दो सौ पौंड का।'
'तो अब क्या करते हो?' उसने कहा, 'अब फिर हनुमान अखाड़े में व्यायाम करता हूं। लेकिन अब आशा छूट गई। क्योंकि दो सौ पौंड का हो जाऊंगा तो क्या भरोसा कि ढाई सौ पौंड का आदमी नहीं आएगा।'
इस सोच से हम कभी भी हीनता के बराबर नहीं हो सकते। कितने लोग हैं, कितने विभिन्न रूप हैं, कितनी विभिन्न कुशलताएं हैं, योग्यताएं हैं, आप उनमें दब मरेंगे। यही वजह है कि अल्फ्रेड एडलर ने मनुष्य की सारी पीड़ाओं और चिंताओं का आधार दूसरे के साथ अपने को तौलने में पाया है। एडलर जैसे-जैसे गहराई में गया, उसे समझ में आया कि आदमी क्यों खुद को दूसरे से तौलता है? क्या जरूरत है? तुम तुम जैसे हो, दूसरा दूसरे जैसा है। यह अड़चन तुम उठाते क्यों हो? पौधे तो तुलना नहींकरते। छोटी-सी झाड़ी बड़े से बड़े वृक्ष के नीचे निश्चित बनी रहती है, कभी यह नहीं सोचती कि यह वृक्ष इतना बड़ा है। छोटा-सा पक्षी गीत गाता रहता है। बड़े से बड़ा पक्षी बैठा रहे, इससे गीत में बाधा नहीं आती। प्रकृति में तुलना है ही नहीं, सिर्फ मनुष्य के मन में तुलना है।
तुलना क्यों है? एडलर ने कहा कि तुलना इसलिए है कि हम सभी यानी पूरी मनुष्यता एक गहन दौड़ से भरी है। उस दौड़ को एडलर कहता है: द विल टु पावर (शक्ति की आकांक्षा)। कैसे मैं ज्यादा शक्तिवान हो जाऊं, फिर चाहे वह धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो, कुशलता हो, कुछ भी हो, हर मामले में मैं शक्तिशाली हो जाऊं। यही मनुष्य की सारी दौड़ का आधार है। लेकिन जब हम शक्तिशाली होना चाहते हैं, तो पाते हैं कि हम शक्तिहीन हैं। क्योंकि हम तुलना करते हैं। जगह-जगह हमारी शक्ति की सीमा आ जाएगी। सिकंदर और नेपोलियन और हिटलर भी चुक जाते हैं। उनकी भी शक्ति की सीमा आ जाती है।
एडलर ने प्रश्न तो खड़ा कर दिया, उलझन भी साफ कर दी, लेकिन मार्ग एडलर को भी नहीं सूझता कि इसके बाहर कैसे हुआ जाए। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान समस्या को समझने में ही उलझा है, उसके बाहर जाने की तो बात ही बहुत दूर है। कैसे कोई बाहर जाए? एडलर का तो सुझाव इतना ही है कि तुम्हे अतिशय की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। जो उपलब्ध हो सकता है, उसका प्रयास करना चाहिए। लेकिन इससे कुछ हल न होगा। क्योंकि कहां अतिशय की सीमा है? कौन सी चीज सामान्य है? जो तुम्हारे लिए सामान्य है वह मेरे लिए सामान्य नहीं। जो मेरे लिए सामान्य है, तुम्हारे लिए अतिशय हो सकती है। एक आदमी एक घंटे में पंद्रह मील दौड़ सकता है; वह उसके लिए सामान्य है। तुम एक घंटे में पांच मील भी दौड़ गए तो मुसीबत में पड़ोगे। कहां तय होगी यह बात कि क्या सामान्य है? औसत क्या है?
लाओत्से के अनुसार, इसका एक ही रास्ता है। और वह रास्ता है घाटी के राज को जान लेना। जब वर्षा होती है पहाड़ खाली रह जाते हैं, लेकिन घाटियां लबालब भर जाती हैं। राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, इसलिए वे खाली रह जाते हैं। तुम जब तक दूसरे से अपने को तौलोगे और दूसरे से आगे होना चाहोगे, तब तक तुम पाओगे कि तुम सदा पीछे हो। लाओत्से कहता है, जो जीवन की इस व्यर्थ दौड़ को देखकर समझ गया और जिसने कहा कि हम आगे होने के लिए दौड़ते नहीं, तो एक अनूठा चमत्कार घटित होता है। तब जो आगे होने की दौड़ में होते हैं, तुम्हारे बजाय वे हीन हो जाते हैं। जैसे ही तुम्हारी हीनता मिट जाती है, तुम श्रेष्ठ हो जाते हो। किसी से तौलोगे तो पीछे हो सकते हो। तौलते ही नहीं, तो हीनता का कैसे बोध होगा? हीनता का घाव भर जाएगा और श्रेष्ठता के फूल उस घाव की जगह प्रकट होना शुरू हो जाएंगे।
यह कैसे हुआ कि महान नदी और समुद्र खड्डों के, घाटियों के स्वामी बन गए? झुकने और नीचे रहने में कुशल होने के कारण। वे झुकना जानते हैं। वस्तुत: जहां जितनी झुकने की क्षमता होगी, उतना ही वहां जीवन होगा। लाओत्से को बहुत प्रिय है झुकने की कला। वह कहता है, जब तुम झुके होगे तो कोई तुम्हें कैसे झुका सकता है।
['ताओ उपनिषद भाग-6' से साभार]
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