विजातीय प्रवृत्ति के नायक कौन-कौन हैं
जो लोग आधे-अधूरे मन से कोई काम करते हैं, उन्हें आधी-अधूरी और खोखली सफलता मिलती है। इससे समाज का भला होने की बजाय नुकसान ही होता है।
एपीजे अब्दुल कलाम के अनुसार, जो लोग आधे-अधूरे मन से कोई काम करते हैं, उन्हें आधी-अधूरी और खोखली सफलता मिलती है। इससे समाज का भला होने की बजाय नुकसान ही होता है।
रूजवेल्ट के अनुसार, किसी व्यक्ति की बात अच्छी नहीं लगने पर तुरंत प्रतिक्रिया देना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो है विरोधी विचार वाले व्यक्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करना।
महात्मा गांधी कहते हैं कि सफल व्यक्ति सदैव लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। वे गलतियां करते हैं, लेकिन मैदान छोड़ने की बजाय लगातार प्रयास में जुटे रहते हैं।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय:। अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।
एक तो स्वयं आप (द्वैत के आचरणरूपी द्रोणाचार्य) हैं, भ्रमरूपी पितामह ‘भीष्म’ हैं। भ्रम इन विकारों का उद्गम
है। अंत तक जीवित रहता है, इसलिए पितामह है। समूची सेना मर गई, वह जीवित थे। शरशय्या पर अचेत। यह है भ्रमरूपी ‘भीष्म’। भ्रम अंत तक रहता है। इसी प्रकार विजातीय कर्मरूपी ‘कर्ण’ तथा संग्रामविजयी ‘कृपाचार्य’
हैं। साधनावस्था में साधक द्वारा कृपा का आचरण ही ‘कृपाचार्य’ है। भगवान कृपाधाम हैं और प्राप्ति के
पश्चात संत का भी वही स्वरूप है। किंतु साधनकाल में जब तक हम परमात्मा से अलग हैं, विजातीय प्रवृत्ति
जीवित है, मोहमयी घिराव है-ऐसी परिस्थिति में साधक यदि कृपा का आचरण करता है, तो वह नष्ट हो जाता है।
सीता ने दया की तो लंका में प्रायश्चित करना पड़ा। विश्वामित्र दयाद्र्र हुए तो पतित होना पड़ा। योगसूत्रकार
महर्षि पतंजलि कहते हैं- ‘ते समाधावुपसर्गा व्यूत्थाने सिद्धय:।’ व्युत्थानकाल में सिद्धियां प्रकट होती हैं, किंतु
कैवल्यप्राप्ति में विघ्न हैं। गोस्वामी तुलसीदास का भी यही निर्णय है-
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।। रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई।
बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई।। माया अनेक विघ्न करती हैं, ऋद्धियां प्रदान करती हैं, यहां तक कि सिद्ध बना देती है। ऐसी अवस्थावाला साधक बगल से निकल भर जाए, मरणासन्न रोगी भी जी उठेगा। वह भले ठीक हो जाए, किंतु साधक उसे अपनी देन मान बैठे तो नष्ट हो जाएगा। (क्रमश:)