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जो सत्य है वही शिव है

जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वही सुंदर है। इसी प्रकार सत्य न तो विभक्त है और न ही भक्त। सत्य तो अखिल अस्तित्व में 'व्यक्त' है। यह 'व्यक्त' ही व्यक्ति होकर कभी श्रीराम तो कभी श्रीकृष्ण बनकर प्रकट हो जाता है और विभिन्न युगों में धरती पर अवतार लेकर मानव का कल्याण करते हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण ही 'वक्तत्व' होकर रामायण और गीता ह

By Edited By: Published: Mon, 14 Apr 2014 03:58 PM (IST)Updated: Mon, 14 Apr 2014 03:58 PM (IST)
जो सत्य है वही शिव है

जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वही सुंदर है। इसी प्रकार सत्य न तो विभक्त है और न ही भक्त। सत्य तो अखिल अस्तित्व में 'व्यक्त' है। यह 'व्यक्त' ही व्यक्ति होकर कभी श्रीराम तो कभी श्रीकृष्ण बनकर प्रकट हो जाता है और विभिन्न युगों में धरती पर अवतार लेकर मानव का कल्याण करते हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण ही 'वक्तत्व' होकर रामायण और गीता हो जाते हैं। जिस रामायण और गीता को हम श्रीराम और श्रीकृष्ण की गाथा कह रहे हैं वे तो उस अव्यक्त के व्यक्त होने के 'वक्तत्व' हैं।

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ब्रह्मंड में 'वक्त' का अस्तित्व नहीं होता। वहां तो मात्र 'व्यक्त' का अस्तित्व होता है। ब्रह्मंड का एक सूर्य ही पृथ्वी के समुद्रों से जल उठाकर आकाश को पहुंचा देता है, लेकिन आकाश और ब्रह्मंड में बहुत फर्क है। ब्रह्मंड का पृथ्वी के आकाश से कोई लेना-देना नहीं है। ब्रह्मंड में पृथ्वी तो मात्र एक छोटा-सा पिंड है, जिसे ब्रह्मंड अपने में धारण किए हुए है। द्वापर युग की बात है, जब कन्हैया ने माता यशोदा को अपना मुख खोलकर दिखाया तो माता कुछ पल के लिए होश खो बैठीं। दरअसल, उन्हें कन्हैया के श्रीमुख में अखिल ब्रह्मंड के दर्शन हो रहे थे। उनके मुख में ग्रह-नक्षत्रों के अलावा अरबों-खरबों तारों के बनने, बिगड़ने और बिखरने के दृश्य दिख रहे थे। इस प्रकार माता यशोदा का सत्य से साक्षात्कार हो रहा था। 1 इस घटना के माध्यम से ब्रह्मंड हमें यह संदेश कन्हैया के बालमुख से पहले ही दे दिया गया था कि एक दिन इस कन्हैया के मुख से ही द्वापर युग का उद्बोधन होगा। सच पूछें तो श्रीमद्भगवतगीता ब्रह्मंड के उद्बोधन का ही संबोधन है। घटना के संदर्भ में निराकार ने अपना चेहरा दिखा दिया है, लेकिन कमाल यह है कि वह निराकार यह भी कह गया है कि 'मैं यह नहीं हूं।' यानी जब वह निराकार चेतना यह कहती है कि मैं वासुदेव या श्रीकृष्ण हूं, पांडवों में मैं धनंजय यानी अजरुन हूं, मुनियों में मैं व्यास हूं और कवियों में मैं उशना कवि हूं।' तो इसका मतलब यह हुआ कि श्रीकृष्ण अपने श्रीमुख से जो बोल रहे हैं वह यह घोषणा कर रहे हैं कि वह 'अजन्मा' हैं, जो अपने होने का सुबूत तो देता है, लेकिन स्वयं पर ज्यादा बात करना पसंद नहीं करता।


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