प्रयाग में यमुना संग आती हैं सरस्वती
तीर्थराज प्रयाग। गंगा-यमुना व अदृश्य सरस्वती के पावन संगम के लिए ख्यात है यह क्षेत्र। विश्वभर से श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाने आते हैं। उन्हें गंगा व यमुना का दर्शन तो होता है, सरस्वती का नहीं।
इलाहाबाद। तीर्थराज प्रयाग। गंगा-यमुना व अदृश्य सरस्वती के पावन संगम के लिए ख्यात है यह क्षेत्र। विश्वभर से श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाने आते हैं। उन्हें गंगा व यमुना का दर्शन तो होता है, सरस्वती का नहीं।
सरस्वती नामक नदी की धारा की खोज में जुटे शोधकर्ताओं को अब तक की पड़ताल में सरस्वती की प्रयाग में अलग से कोई धारा होने का प्रमाण नहीं मिला। हां, इतना जरूर साबित हुआ है कि सरस्वती नदी का जल, यमुना में मिलकर यहां तक पहुंचता है। वेदों में वर्णित सात नदियों का समूह सप्तसिंधु कहलाता है। यह भारत की ऋग्वेदिक सभ्यता को सिंचित करता है। पश्चिम में सिंधु व पूरब में सरस्वती प्रमुख नदियां हैं। मध्य में पंजाब की पांच नदियां राबी, चिनाब, झेलम, सतलुज, व्यास। राबी व सिंधु के किनारे हड़प्पा व मोहन जोदड़ो सभ्यता मानी जाती है। चिनाब, ङोलम, व्यास व सतलुज के साथ सरस्वती के किनारे में सिंधु घाटी की सभ्यता। बनावली, राखीगड़ी, उनाल, बिरडाना, फरमाना जैसी सभ्यताएं सरस्वती के तट पर मिलीं। इसका क्षेत्र 10.22 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। ओएनजीसी एवं इसरो के साथ मिलकर काम करने वाले इलाहाबाद संग्रहालय के निदेशक राजेश पुरोहित बताते हैं कि 2006 में हरियाणा में कुरुक्षेत्र के पास स्थित भोरसैता के करीब 80 फुट गहराई में रेतीला नदी के पास सरस्वती नदी की खोजी गई थी। विभिन्न शोधों के हवाले से उन्होंने दैनिक जागरण को बताया कि सैकड़ों वर्ष पहले हिमालय के शिवालिक क्षेत्र में भूकंप से काफी उथल-पुथल हुई। तब सरस्वती के प्रवाह में अवरोध पैदा हुआ। धीरे-धीरे वह विलुप्त होने लगीं। भू-वैज्ञानिकों की मान्यता है कि सरस्वती का एक हिस्सा सतलुज एवं सिंधु की ओर चला गया, जबकि पूर्व दिशा में वह यमुना नदी के साथ बहने लगीं। प्रयाग में सरस्वती का जल यमुना से मिलकर पहुंचा है। इलाहाबाद में यमुना तट पर सरस्वती घाट व सेना के अधिपत्य वाले किले में सरस्वती कूप है। इसे अदृश्य सरस्वती का कैप्चर्ड जल माना जाता है। उत्तर सिंधु घाटी की सभ्यता प्रतिपादित करती है कि सरस्वती के विलुप्त होने के साथ वहां के लोग जल की खोज में यमुना तट की ओर बढ़े हैं।
जप एवं तपस्थली प्रयाग में सरस्वती नदी की प्रत्यक्ष धारा भले कभी नहीं बही, लेकिन यहां भूगर्भ में सरस्वती की अंतर्धारा अनवरत बह रही हैं। दो कुओं में आज भी पानी को बहते देखा जा सकता है। मान्यता है कि यही सरस्वती नदी की जलधार है, जो पहाड़ से कुएं से होकर ही यहां पहुंची है।
कुओं में बहती है सरस्वती की धार
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के पूर्व विभागाध्यक्ष एवं गंगा पर शोध करने एवं कराने वाले प्रो. दीनानाथ शुक्ल बताते हैं कि प्रयाग में दो कूप प्रसिद्ध हैं। संगम किले स्थित सरस्वती कूप झूंसी स्थित समुद्र कूप। अमूमन हर कुएं में पानी ऊपर की ओर बढ़ता रहता है, लेकिन इन दोनों कुओं में पानी ऊपर की ओर बढऩे की बजाय बहता दिखता है। बकौल शुक्ल, दरअसल यही सरस्वती की धारा है। उन्होंने बताया कि हिमालय से निकली सरस्वती नदी जब उत्तराखंड के मना गांव के पास पहुंची तो वहां अलकनंदा कूप में समा गईं। यह वही स्थान है जहां पर वेदव्यास ने महाभारत लिखी थी। वहीं से यह नदी भूगर्भ मार्ग से प्रयाग के दो कुओं में प्रकट होती है। शुक्ल ने कहा कि अलकनंदा एवं भागीरथी मिलकर ही गंगा नदी बनी है। प्रयाग में सरस्वती की धारा इसलिए बहती प्रतीत होती है क्योंकि यहां से गंगा एवं यमुना जब एक होकर आगे बढ़ती हैं तो एकाएक जलधारा काफी बढ़ जाती है।
उन्होंने सवाल किया यह बढ़ा जल आखिर कहां का है? साथ ही यह जल में पीला पन भी है, जो सरस्वती नदी के जल का द्योतक है। साथ ही प्रयाग में पहले ब्रह्म और फिर भारद्वाज मुनि के समय से जो ज्ञान की अलख जगी है वह आज भी बरकरार है।
कभी गंगा सरीखी थीं सरस्वती
सरस्वती कभी एक विशाल नदी थी। हिमालय से वह पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई अरब सागर में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशालतम नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानी गंगा में चला गया, कई विद्वान मानते हैं कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया।
इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुँची। वेदों के बाद महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में पश्यामि वद्यामि विभात्मि गंगा भिन्न प्रवाह: यमुना तरंगै का जिक्र किया है। इसमें संगम का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ने गंगा व यमुना की उठती लहरों में भगवान शिव की अनुकृति देखी। लिखा 'मूर्ते च गंगा-जमुने तदानीं स्वचामरे वैष्णव मंदिर देवं सेविताशां'। यानी गुप्तकाल के राजाओं ने जिन मंदिरों का निर्माण कराया उनमें गंगा व यमुना की मूर्ति द्वार पर लगाई गई है।