मनुष्य की उत्पत्ति एक परमात्मा से ही हुई है
सात्विक गुण के कार्यकाल में मृत्यु को प्राप्त पुरुष उन्नत देवयोनि प्राप्त करता है। देव अर्थात दैवी संपद से संपन्न विशुद्ध धर्मपरायण पुरुष के रूप में अवतरित होता है।
मनुष्य की उत्पत्ति एक परमात्मा से ही हुई है, क्योंकि मन सहित इंद्रियों का व्यापार पशुओं में, पक्षियों में, जड़
वनस्पतियों में नहीं होता। मनसहित इंद्रियों के व्यापार को लेकर यह आत्मा मानव-शरीर त्यागकर दूसरे शरीर को धारण करती है। सात्विक गुण के कार्यकाल में मृत्यु को प्राप्त पुरुष उन्नत देवयोनि प्राप्त करता है। देव अर्थात दैवी संपद से संपन्न विशुद्ध धर्मपरायण पुरुष के रूप में अवतरित होता है।
राजसी गुण के कार्यकाल में मृत्यु को प्राप्त पुरुष सामान्य मानव होता है और तामसी गुण की बहुलता में मृत्यु को प्राप्त पुरुष पशु-पक्षी, कीट-पतंग इत्यादि अधम योनि प्राप्त करता है। इसी को भगवान ने गीता के पंद्रहवें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा, कर्मानुबंधीनि मनुष्यलोके-मनुष्य कर्मों के अनुसार बंधन तैयार करता है। मनुष्य का इस शरीर से उस शरीर में परिवर्तन की प्रक्रिया को हृदय स्थित आत्मा ही नियंत्रित करती है, जो मेरा विशुद्ध अंश है। सृष्टि के आरंभ में ज्योतिर्मय परमात्मा है। उसका ज्योतिर्मय अंश सूर्य कहलाता है, इसीलिए भगवान कहते हैं कि इस अविनाशी योग को मैंने कल्प के आदि में सूर्य से कहा। सूर्य ने वही उपदेश अपने पुत्र आदि मनु से कहा। मनु ने
वह ज्ञान अपनी याददाश्त में धारण कर लिया और उसे सुरक्षित रखने के लिए अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा,
इक्ष्वाकु से राजर्षियों ने जाना। इस प्रकार परमात्मा के ज्योतिर्मय अंश से ही वह गीतोक्त ज्ञान प्रसारित
हुआ। योग तो अविनाशी है, कभी नष्ट नहीं होता।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद जी कृत श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य यथार्थ गीता से साभ्