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जानें, महाराज दशरथ के बारें में अदभुत अनजानी बातें

अयोध्या नरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनु के अवतार थे| पूर्वकाल में कठोर तपस्या से इन्होंने भगवान् श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था|

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 06 Dec 2016 03:13 PM (IST)Updated: Wed, 07 Dec 2016 11:01 AM (IST)
जानें,  महाराज दशरथ के बारें में अदभुत अनजानी बातें

अयोध्या नरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनु के अवतार थे| पूर्वकाल में कठोर तपस्या से इन्होंने भगवान् श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था|

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महाराज दशरथ ये परम तेजस्वी, वेदोंके ज्ञाता, विशाल सेनाके स्वामी, प्रजाका पुत्रवत् पालन करनेवाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे| इनके राज्य में प्रजा सब प्रकारसे धर्मरत तथा धन-धान्य से सम्पन्न थी| देवता भी महाराज दशरथ कि सहायता चाहते थे| देवासुर-संग्राममें इन्होंने दैत्योंको पराजित किया था| इन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ भी किये|

महाराज दशरथ कि बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं| महाराजकी वृद्धावस्था आ गयी, किन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ| इन्होंने अपनी इस समस्या से गुरुदेव वसिष्ठ को अवगत कराया| गुरु की आज्ञा से ॠष्यश्रृंग बुलाये गये और उनके आचार्यत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन हुआ| यज्ञपुरुष ने स्वयं प्रकट होकर पायसत्र से भरा पात्र महाराज दशरथ को देते हुए कहा - 'राजन्! यह खीर अत्यन्त श्रेष्ठ, आरोग्यवर्धक तथा पुत्रों को उत्पन्न करनेवाली है| इसे तुम अपनी रानियों को खिला दो|' महाराज ने वह खीर कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा में बाँटकर दे दिया| समय आने पर कौसल्याके गर्भसे सनातन पुरुष भगवान् श्रीराम का अवतार हुआ| कैकेयी ने भरत और सुमित्राने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न को जन्म दिया |

चारों भाई माता-पिताके लाड़-प्यारमें बड़े हुए| यद्यपि महाराज को चारों ही पुत्र प्रिय थे, किन्तु श्रीराम पर इनका विशेष स्नेह था| ये श्रीराम को क्षणभरके लिये भी अपनी आँखों से ओझल नहीं करना चाहते थे| जब विश्वामित्रजी यज्ञरक्षार्थ श्रीराम-लक्ष्मण को माँगने आये तो वसिष्ठ के समझाने पर बड़ी कठिनाई से ये उन्हें भेजने के लिये तैयार हुए|

अपनी वृद्धावस्था को देखकर महाराज दशरथ ने श्रीरामको युवराज बनाना चाहा| मंथरा की सलाह से कैकेयीने अपने पुराने दो वरदान महाराज से माँगे - एक में भरतको राज्य और दूसरेमें श्रीरामके लिये चौदह वर्षोंका वनवास| कैकेयीकी बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गये| थोड़ी देरके लिये तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गयी| होश आनेपर इन्होंने कैकयीको समझाया| बड़ी ही नम्रतासे दीन शब्दोंमें इन्होंने कैकेयीसे कहा - 'भरतको तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूँ, किन्तु तुम श्रीरामको वन भेजनेका आग्रह मत करो|' विधिके विधान एवं भावीकी प्रबलताके कारण महाराजके विनयका कैकेयीपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा| भगवान् श्रीराम पिताके सत्यकी रक्षा और आज्ञापालनके लिये अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ वन चले गये| महाराज दशरथके शोकका ठिकाना न रहा| जबतक श्रीराम रहे तभीतक, इन्होंने अपने प्राणोंको रखा और उनका वियोग होते ही श्रीरामप्रेमानलमें अपने प्राणोंकि आहुति दे डाली|

जिअत राम बिधु बदनु निहारा| राम बिरह करि मरनु सँवारा||

महाराज दशरथ के जीवन के साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गयी| श्रीरामके वियोग में अपने प्राणोंको देकर इन्होंने प्रेम का एक अनोखा आदर्श स्तापित किया| महाराज दशरथके सामान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अंत समयमने राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणोंका विसर्जन किया|


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