जैन परंपरा में कुलकरों की एक नामावली है जिनमें ऋषभदेव 15वें कुलकर हैं
माना जाता है कि प्रभु ऋ षभदेव के 101 पुत्र और पुत्रियां हुईं। भरत इनके ज्येष्ठ पुत्र थे, जो उनके राज्य के उत्तराधिकारीतो हुए ही, प्रथम सम्राट भी बने।
By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 22 Mar 2017 11:26 AM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 12:00 PM (IST)
देश में ऐसे कई दार्शनिक राजा हुए हैं, जिन्होंने राजपाट के बाद दीक्षा ली और आत्मकल्याण किया, लेकिन ऐसे विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहे हैं, जो एक से अधिक परंपराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहे हों। भगवान ऋ षभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हैं। वैदिक परंपरा के भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। वे अयोध्या के महाराजा नाभिराय के पुत्र माने जाते हैं। मरुदेवी उनकी माता थीं। दोनों परंपराएं उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं।
ऋषभदेव जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के थे। शैशवकाल से ही वे योग विद्या में प्रवीण होने लगे। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जैन परंपरा में भगवान ऋ षभदेव का दर्शन सांसारिक कर्मशीलता पर अधिक जोर देता है, जबकि भागवत परंपरा में उनकी दिगंबरता पर अधिक बल दिया गया है। भगवान ऋ षभदेव का समग्र परिचय पाने के
लिए दोनों परंपराओं का हमें समुचित अध्ययन करना होगा।
जैन परंपरा में कुलकरों की एक नामावली है, जिनमें ऋ षभदेव 15वें और उनके पुत्र 16वें कुलकर हैं। कुलकर वे विशिष्ट पुरुष होते हैं, जिन्होंने सभ्यता के विकास में विशेष योगदान दिया हो। जैसे तीसरे कुलकर क्षेमंकर ने पशुओं का पालन करना सिखाया, तो पांचवें सीमंधर ने संपत्ति की अवधारणा दी और उसकी व्यवस्था
करना सिखाया। ग्यारहवें चंद्राभ ने कुटुंब की परंपरा डाली और 15वें कुलकर ऋ षभदेव ने अनेक प्रकार का योगदान समाज को दिया।
चैत्र कृष्ण नवमी को जन्मे ऋषभदेव ऋ षभदेव जैन धर्म के पहले तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका वर्ण सुवर्ण और चिह्न वृषभ है। युवावस्था में ऋ षभदेव का विवाह सुमंगला व सुनंदा नामक कन्या से हुआ। माना जाता है कि प्रभु ऋ षभदेव के 101 पुत्र और पुत्रियां हुईं। भरत इनके ज्येष्ठ पुत्र थे, जो उनके राज्य के उत्तराधिकारी
तो हुए ही, प्रथम सम्राट भी बने। युद्धकला, लेखनकला, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या आदि के माध्यम से समाज के जीवन विकास में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। माना जाता है कि भारत में लेखन कला का प्रारंभ इनकी पुत्री ब्राह्मी ने किया था। भारत में स्त्री शिक्षा की शुरुआत करने का श्रेय भी ऋषभदेव को ही जाता है। यही कारण है कि उनकी पुत्री ब्राह्मी के नाम पर ही भारत की प्राचीनतम लिपि का नाम भी ब्राह्मी लिपि पड़ा।
डॉ. अनेकांत कुमार जैन
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