भगवान का अवतरण, उनके जन्म लेने के सदृश ही प्रतीत हुआ
इस वर्ष श्रीकृष्ण की 5239वीं जयंती जन्माष्टमी- व्रतोत्सव के रूप में मनाई जा रही है।श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण अपने अवतार लेने के विषय में कहते है 'अजोऽपि सव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥'
इस वर्ष श्रीकृष्ण की 5239वीं जयंती जन्माष्टमी- व्रतोत्सव के रूप में मनाई जा रही है।श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण अपने अवतार लेने के विषय में कहते है 'अजोऽपि सव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥'
यानी 'मैं अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं।' श्रीमद् भागवदगीता के इस कथन से पता चलता है है कि भगवान नित्य और शाश्वत है। इस दृश्य-जगत में लोक-कल्याण और जन-हित के उद्देश्य से धरा पर अवतरित होते है।
'अवतार' का शाब्दिक अर्थ है अवतरित होना यानी ऊपर से नीचे आना। निजधाम से पृथ्वी पर जनकल्याण के बड़े उद्देश्य से पृथ्वी पर प्रत्यक्ष आगमन ही अवतार कहा जाता है।
ग्रंथों में अवतारों की कई कोटि बताई गई है जैसे अंशांशावतार, अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार, नित्यावतार, युगावतार आदि। शास्त्रों में 'कृष्णावतार' को 'पूर्णावतार' माना गया है, यानी श्रीकृष्ण के रूप में भगवान अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ धरा पर आए थे।
श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि द्वापर युग में जब अधर्मियों के अत्याचार और पाप के भार से व्याकुल पृथ्वी करुण क्रंदन करते हुए ब्रह्माजी के पास पहुंची, तब सृष्टिकर्ता ने समस्त देवगणों को साथ लेकर भगवान की स्तुति की।
उस समय ब्रह्माजी ने ध्यानावस्था में आकाशवाणी सुनी, 'वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान पुरुष: पर:' यानी वसुदेवजी के यहां साक्षात भगवानही प्रकट होंगे। कंस के कारागार में बंद वसुदेव-देवकी के समक्ष भगवान भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी की मध्यरात्रि में शिशु के रूप में प्रकट हुए।
इस तरह भगवान का अवतरण, उनके जन्म लेने के सदृश ही प्रतीत हुआ। श्रीमद्भागवत के वक्ता शुकदेवजी कहते है, 'कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्। जगद्धिताय सोऽप्यत्र देही वा भाति मायया॥' यानी 'आप श्रीकृष्ण को समस्त प्राणियों की आत्मा व परमात्मा जानें। भूलोक में भक्तजनों के उद्धार हेतु ये भगवान अपनी माया के कारण देहधारी-से प्रतीत होते हैं।
श्रीमद्भागवत के एकादशवें स्कंध के 31वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम-गमन का संपूर्ण विवरण मिलता है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने लोकहितार्थ जिस देह से 125 वर्ष लीलाएं कीं, वह देह भी अंत में नहीं मिली। उनकी देह दिव्य और अप्राकृत थी। वे अपने उसी दिव्य शरीर से निजधाम पधारे।