मेरे लिए ईश्वर के मायने अलग हैं
हमारा आत्मकेंद्रित होना ही ईश्वर है, प्रार्थना है। जब हम किसी मंदिर में जाते हैं, तो अचानक शांति महसूस करते हैं, क्योंकि वहां सभी लोग सकारात्मकता लेकर आते हैं।
हमारा आत्मकेंद्रित होना ही ईश्वर है, प्रार्थना है। जब हम किसी मंदिर में जाते हैं, तो अचानक शांति महसूस करते हैं, क्योंकि वहां सभी लोग सकारात्मकता लेकर आते हैं। वहां हाथ जोड़कर और आंखें बंद कर खड़े होना खुद को शांत करने और आत्मकेंद्रित करने का क्षण होता है। इस क्षण आप खुद ईश्वर होते हैं। ईश्वर कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, जिससे कि आप कहें कि हे ईश्वर, मुझे यह दे दे, वह दे दे। मेरे लिए तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं
है। मेरे लिए ईश्वर के मायने अलग हैं। ईश्वर के रूप में जो आपके सामने है, वह आपका खुद से साक्षात्कार कराने का मात्र एक माध्यम है। मैं जब हाथ जोड़कर आंखें बंद करता हूं, तो खुद से साक्षात्कार करता हूं और जानता हूं कि मैं क्या करने जा रहा हूं। मैं ईश्वर की प्रार्थना के लिए समय निकालता हूं और आत्मकेंद्रित होने की कोशिश करता हूं। मुझे लगता है कि आदमी ने अपनी जरूरत के लिए और अपने बच्चों को सही दिशा का ज्ञान देने के लिए ईश्वर को साकार रूप दिया। कभी-कभी मैं महसूस करता हूं कि मानव को दिशा की जरूरत थी। सही-गलत की पहचान करने की जरूरत थी, इसके लिए हमने पौराणिक कहानियां बनाईं, जिनमें ईश्वर भी गढ़ा और राक्षस भी।