दिपावली: झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना
देहरादून। गढ़वाली में जगमोहन सिंह जयाड़ा की कविता है, 'जै दिन बानी-बानी का, पकवान बणदा छन, वे दिन कु बोल्दा छन, रे छोरों आज पड़िगी, बल तुमारी बग्वाल।' सचमुच ऐसा ही रूप रहा है पहाड़ में बग्वाल का। 'बग्वाल' व 'इगास' संभवत: गढ़वाली में दीपावली के ही पर्यायवाची हैं। एक दौर में इन दोनों दिन उत्तराखंड में भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा थी,
देहरादून। गढ़वाली में जगमोहन सिंह जयाड़ा की कविता है, 'जै दिन बानी-बानी का, पकवान बणदा छन, वे दिन कु बोल्दा छन, रे छोरों आज पड़िगी, बल तुमारी बग्वाल।' सचमुच ऐसा ही रूप रहा है पहाड़ में बग्वाल का। 'बग्वाल' व 'इगास' संभवत: गढ़वाली में दीपावली के ही पर्यायवाची हैं।
एक दौर में इन दोनों दिन उत्तराखंड में भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा थी, जो वक्त के साथ कुछ क्षेत्रों तक सिमटकर रह गई। हालांकि, आज भी पूर्वी गढ़वाल और कुमाऊं में 'इगास-बग्वाल' के इसी पारंपरिक रूप के दर्शन होते हैं और फिजाएं 'भैलो रे भैलो, अंध्यरो भजैकि उज्यलो देलो' के सुमधुर गुंजन से आलोकित हो उठती हैं।
बग्वाल के मौके पर भैलो खेलने की रवायत पहाड़ में सदियों से रही है। 'बेलो' पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हैं, जिसमें निश्चित दूरी पर कुलैं (चीड़) के छिल्ले (लकड़ियां) फंसाए जाते हैं। फिर सभी लोग गांव के किसी ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर एकत्र होते हैं, जहां पांच से सात की संख्या में तैयार बेलो में फंसी लकड़ियों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है। इसके उपरांत ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। यही भैलो खेलना हुआ।
ऐसा करने के पीछे धारणा यह है कि मां लक्ष्मी हमारे सभी आरिष्टों का निवारण करें। आचार्य डॉ.संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि गांव की खुशहाली एवं सुख-समृद्धि के वास्ते बेलो को गांव के चारों ओर भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के छिल्लों को जलाकर ग्रामीण सामूहिक नृत्य करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप है। इसके अलावा दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता की पूजा भी होती है। इससे पहले धनतेरस के दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा होती है और फिर घर के सभी लोग 'गऊ पूड़ी' का भोग लगाते हैं। जबकि, छोटी बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा होती है और उस पर 'शुभ-लाभ' अथवा 'स्वास्तिक' अंकित किया जाता है।
दीपावली का अगला दिन पड़वा गोवर्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत और नदी की पूजा की जाती है। कहते हैं कि पड़वा को निद्रा त्यागकर बिना मुख धोए मीठा ग्रहण करने से सालभर घर-परिवार में मिठास घुली रहती है।1बग्वाल के तीसरे दिन पड़ने वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है। भाई इस दिन बहन के घर जाता है और बहन उसका टीका कर उसे मिष्ठान खिलाती है। कहते हैं कि इस दिन यमलोक के भी द्वार बंद रहते हैं। तो आइए! ज्योति पर्व के बहाने ही सही, अपनी इस समृद्ध परंपरा को याद करें। डांडी-कांठ्यों ने रैबार (संदेश) भेजा है कि, 'झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना, फिर बौड़ि ऐगे बग्वाल.'
पारंपरिक स्वरूप बरकरार रखें-
दीपावली असल में रोशनी का त्योहार है। सबका दायित्व है कि इसका पारंपरिक स्वरूप बरकरार रखें। प्रकाश पर्व पर वायु और ध्वनि प्रदूषण न हो, इसके लिए जरूरी है कि पटाखों से दूर रहा जाए। यह बात समझने की है कि पटाखों से अपने साथ ही समाज और पर्यावरण का भी नुकसान होता है। आतिशबाजी से निकलने वाली गैसें न केवल शरीर के लिए खतरनाक हैं, बल्कि इससे पर्यावरण भी दूषित होता है। आइये, इस दीपावली पर संकल्प लें कि प्रकाश पर्व को पटाखों से दूर रखें।1पद्मश्री चंडी प्रसाद भट्ट, पर्यावरणविद्
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