चैत्र नवरात्र विशिष्ट है क्योंकि इसके साथ भारतीय नववर्ष नवसंवत्सर का भी शुभारंभ होता है
नव-संवत्सर व नवरात्र पर विशेष साधना की अमृत बेला। हिंदू धर्म में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वयंसिद्ध अमृत तिथि माना गया है
By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 28 Mar 2017 01:00 PM (IST)Updated: Tue, 28 Mar 2017 04:23 PM (IST)
हिंदू दर्शन में नवरात्र को सर्वाधिक फलदायी साधनाकाल माना जाता है। जिस प्रकार दिन रात के 24 घंटों में ईश्वर की उपासना के लिए प्रात:काल की ब्रह्मबेला सर्वोत्तम होती है, उसी प्रकार वार्षिक साधनाकाल की दृष्टि से साल में आने वाले दो नवरात्र काल (चैत्र व आश्विन) सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं। नौ दिनों की साधना की अमृत बेला का लाभ सभी को उठाना चाहिए।
चैत्र नवरात्र काल इस कारण और भी विशिष्ट है, क्योंकि इसके साथ हमारे भारतीय नववर्ष नवसंवत्सर का भी शुभारंभ होता है। हिंदू धर्म में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वयंसिद्ध अमृत तिथि माना गया है। वर्ष भर का सबसे उत्तम दिन। सृष्टि रचयिता ब्रह्मा ने धरती पर जीवों की रचना के लिए इसी शुभ दिन का चयन किया और समूचे जीव जगत की रचना की तथा लोकपालक श्रीहरि विष्णु ने सृष्टि के प्रथम जीव के रूप में इसी दिन
प्रथम मत्स्यावतार लिया था। त्रेता युग में लंका विजय के बाद अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक इसी शुभ दिन हुआ था। द्वापर काल में महाभारत के युद्ध में विजय के उपरांत धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी दिन राजगद्दी पर बैठे थे। इसी विशेष तिथि को सिंधी समाज के महान संत झूलेलाल का जन्म हुआ था, जो वरुण देव के अवतार माने जाते हैं। सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगद देव का जन्म भी इसी पावन दिन हुआ
था। समाज से आडंबरों का विनाश करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना के लिए चैत्र प्रतिपदा की तिथि निर्धारित की। यही नहीं, देश में विक्रमी व शक संवत का शुभारंभ भी चैत्र प्रतिपदा की तिथि को ही हुआ।
देश के सनातनधर्मी हिंदू परिवार अपने सांस्कृतिक पर्व-उत्सवों, जन्म-मुंडन, विवाह संस्कार व श्राद्ध-तर्पण आदि विक्रमी संवत के उसी भारतीय पांचांग के अनुसार करते हैं, जिसकी रचना महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने चैत्र प्रतिपदा के दिन की थी। इस कालगणना के आधार पर दिन-रात, सप्ताह, पखवारा, महीने, साल और ऋ तुओं का निर्धारण किया और 12 महीनों और छह ऋ तुओं के पूरे एक चक्र यानी पूरे वर्ष की अवधि को संवत्सर का नाम दिया। खास बात यह है कि यह कालगणना युगों बाद भी पूरी तरह सटीक साबित हो रही है। इसे सुखद संयोग कहें या वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले हमारे ऋ षियों का दूरदर्शी चिंतन कि उन्होंने चैत्र मास के इस संधिकाल को मां शक्ति की आराधना से जोड़कर देवत्वपूर्ण बना दिया। साधना की इस अमृत बेला में शक्ति की देवी मां
दुर्गा की उपासना का विधान है।
मार्कण्डेय पुराण के अंश दुर्गासप्तशती में मां दुर्गा का माहात्म्य विस्तार से वर्णित है। इस कथा का शिक्षाप्रद
दर्शन सार्वकालिक और सर्वोपयोगी है। दुर्गा का शाब्दिक अर्थ है दुर्ग यानी किला। उनके दुर्ग की छत्रछाया सारे दुख, दुर्गुण और पीड़ा दूर कर देती है। मगर मां दुर्गा के दुर्ग में प्रवेश कर पाना सबके लिए संभव नहीं है। उसमें निष्कपट व निश्छल मनुष्य को ही प्रवेश मिल सकता है। मां दुर्गा दुर्गतिनाशिनी कही जाती हैं। उन्होंने
अनेक असुरों को मारकर प्रतीकात्मक रूप से यह संदेश दिया कि महिषासुर, धूम्र लोचन, चंड- मुंड, शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ आदि असुर हमारे भीतर स्थित आलस, लालच और घमंड जैसी दुष्प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं, जो हमें पतन की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं।
वस्तुत: प्रत्येक व्यक्ति के अंतस में दो प्रकार की वृत्तियां होती हैं- दैवी और आसुरी। हमारी बुरी आदतें आसुरी वृत्ति हैं, जबकि अच्छाइयां दैवी वृत्ति। इसी कारण दुर्गा सप्तशती में मां दुर्गा से प्रार्थना की गई है कि हे मां! अपनी कृपादृष्टि से मेरे भीतर की कुवृत्तियों को समाप्त करो। यह अज्ञानमय काला अंधकार मेरे निकट आ
चुका है। मेरे भीतर सद्ज्ञान की ज्योति जलाकर इसे मिटाओ। इस तरह मां दुर्गा का चरित्र तमाम दैवीय शिक्षा-प्रसंगों से भरा पड़ा है। बस जरूरत है, इसे समझने की। जो इसे हृदयंगम कर लेगा, वह जीवन में कभी अवनति को प्राप्त नहीं होगा। आइए, एक शुभ संकल्प के साथ इस नवरात्र पर अपने भीतर साधना की दिव्य ज्योति जलाकर अपने भीतर बैठे असुरों का विनाश करें।
पूनम नेगी
Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें