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बंगाल में देवी-भक्त विसर्जन से पहले सिंदूर खेला उत्सव मनाते हैं, क्यों

मूर्ति विसर्जन से पहले मां दुर्गा को पूरी तरह सजाया और संवारा जाता है। महिलाएं शगुन के तौर पर एक-दूसरे की मांग और चूड़े-कड़े में सिंदूर लगाती हैं। यहां इस उत्सव का खास महत्व है,।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 27 Mar 2017 02:52 PM (IST)Updated: Mon, 27 Mar 2017 04:47 PM (IST)
बंगाल में देवी-भक्त विसर्जन से पहले सिंदूर खेला उत्सव मनाते हैं, क्यों
  
कहते हैं बेटी पराया धन होती है। उसे एक न एक दिन अपना मायका, यानी मां-बाप का घर छोड़ कर अपने ससुराल यानी पति के घर जाना ही पड़ता है। विवाह के बाद बेटियां अपने मायके मेहमान की तरह आती हैं और चली जाती हैं, यह परंपरा सदियों पुरानी नहीं, बल्कि युगों पुरानी है। माना जाता है कि मां दुर्गा भी अपने बच्चों सहित इस पृथ्वी पर अर्थात अपने मायके आती हैं और कुछ दिन बिताकर वापस अपने ससुराल शिव के पास चली जाती हैं।
भारत के कोने-कोने में आज भी कई परंपराएं एवं मान्यताएं पूर्ण रूप से मौजूद हैं, जिन्हें हम कई त्योहारों और पर्वों के रूप में मनाते हैं। उन्हीं में से एक है दुर्गोत्सव। शरद ऋतु के आगमन पर बंगाल में यह उत्सव पूरे हर्षोल्लास से मनाया जाता है। 
चार दिन तक चलने वाला यह उत्सव पांचवें दिन दुर्गा की विदाई विसर्जन के साथ संपन्न होता है। प्राचीन परंपराओं और व्यवस्थाओं में झांकें, तो हमें इस पर्व का मर्म समझ में आता है। बारिश के ठीक बाद सितंबर-अक्टूबर में फसल पककर तैयार हो जाती है। इसे किसान वर्ग घरों में लाकर साफ-सफाई कर कोठियों और गोदामों आदि में भरकर अपने वर्ष भर की मेहनत और जिम्मेदारियों से मुक्ति पाते हैं। ऐसे खाली समय में उनकी पत्नियां अपने बाल बच्चों सहित मायके आती हैं। वे कुछ समय बिताकर, घर में खुशहाली का वातावरण पैदा करके फिर अपने ससुराल लौट जाती हैं। उन्हें पूरा परिवार भारी मन से सजा- धजाकर मंगलकामनाओं और आशीर्वाद के साथ विदा करता है। 
इसी तरह मां दुर्गा भी अपने बच्चों कार्तिक और गणेश के साथ चार दिन के लिए इस धरती, यानी मायके खुशी बिखेरने आती हैं। इसके बाद वह अपनी ससुराल भगवान शिव के पास चली जाती हैं, जिसे भक्तगण उनकी मूर्ति का परंपरानुसार नदी मेें विसर्जित कर पूरा करते हैं। 
मूर्ति विसर्जन से पहले मां दुर्गा को पूरी तरह सजाया और संवारा जाता है। महिलाएं शगुन के तौर पर एक-दूसरे की मांग और चूड़े-कड़े में सिंदूर लगाती हैं। यहां इस उत्सव का खास महत्व है, जिसे सिंदूर खेला कहा जाता है। मां के सुहाग की लंबी आयु की कामनाओं का प्रतीक यह सिंदूर खेला पूरे वातावरण मेें उमंग और मस्ती का माहौल पैदा कर देता है। थोड़ी देर बाद मां की विदाई का समय आ जाता है और सबकी आंखें भर आती हैं। पंडाल का पूरा माहौल बदलने लगता है, सबके होंठों पर एक गीला-सा गीत होता है। मां चोलेछे ससुर बाड़ी अर्थात मां चली ससुराल। अगले वर्ष फिर उनके आने की कामना करते हुए प्रतिमा विसर्जित कर दी जाती है।
शशिकांत सदैव

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