श्रीकृष्ण थे सोलह कलाओं में प्रवीण
भगवान श्रीकृष्ण कि जन्म कुंडली में उच्च का चन्द्रमा लग्न में 'मृदंग योग' बना रहा। इस योग के परिणाम स्वरूप ही कृष्ण शासनाधिकारी बने।सात राशियों में समस्त गृह 'वीणा योग' का निर्माण कर रहे हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कि जन्म कुंडली में उच्च का चन्द्रमा लग्न में 'मृदंग योग' बना रहा। इस योग के परिणाम स्वरूप ही कृष्ण शासनाधिकारी बने।सात राशियों में समस्त गृह 'वीणा योग' का निर्माण कर रहे हैं।
पंडित विशाल दयानंद शास्त्री बताते हैं कि इस योग से ही कृष्ण गीत, नृत्य, संगीत में प्रवीण बने। इसी के माध्यम से महारास जैसा आयोजन सम्पन्न कराया।कुंडली में 'पर्वत योग' इन्हें यशस्वी व तेजस्वी बना रहे हैं, तो उच्च के लग्नेश व भाग्येश ने 'लक्ष्मी योग' बनाकर धनि व पराक्रमी बनाया।
बुध अस्त होकर भी यदि उच्च का हो तो 'विशिष्ट योग' बनता है। ये योग इन्हें कूटनीतिज्ञ व विद्वान बना रहा है। बलवान लग्नेश व मकर राशि का मंगल 'यशस्वी योग' बनाकर युगयुगांतर तक इन्हें आदरणीय व पूजनीय बना रहे हैं। वहीँ सूर्य से दूसरा गृह बुध व बुध से एकादश चन्द्र या गुरु हो तो, 'भास्कर योग' का निर्माण होता है।
यह योग ही श्रीकृष्ण को पराक्रमी, भगवान के तुल्य सम्मान शास्त्रार्थी, धीर और समर्थ बना रहे हैं। इसके अलावा कई अन्य महत्वपूर्ण योग इनकी कुंडली में हैं। ऋणात्मक प्रभावकारी ‘ग्रहण योग’ ने इनके जीवन में कलंक भी लगाया।
इस योग के प्रभाव स्वरूप ही कृष्ण ने अपने मामा का वध कर बुरा कार्य किया, तो स्यमंतक मणि के चोरी के झूठे कलंक का सामना भी इन्हें करना पड़ा।ग्रहों की स्थिति का आकलन करें, तो उच्च के लग्नेश लग्न भाव में निरूग व दीर्घायु बना रहे हैं।
द्वितीयेश बुध पंचम भाव में प्रसिद्धि दिलाते हैं, लेकिन आखिरी समय में परेशानी भी देते हैं। इनके सामने ही इनके समस्त कुल का नाश हुए। तृतीयेश चन्द्रमा लग्न में केतु के साथ होने से स्वजनों से दूर रखते हैं।
इनका अधिकांश समय घर से बाहर व युद्ध क्षेत्र में ही बीता था। चतुर्थेश या सुखेश स्वग्रही सूर्य मातृभूमि से दूर रखते हैं। परिणाम स्वरूप जन्म होते ही श्रीकृष्ण को अपनी जन्मस्थली से दूर ले जाया गया व आजीवन उस जगह नहीं आ पाए। पंचमेश यदि पंचम भाव में हो तो सच्चरित्र पुत्रों का पिता, चतुर व विद्वान बनाते हैं, चतुराई में तो भगवान् श्रीकृष्ण की कहीं कोई सानी नहीं है।
षष्टेश शुक्र छठे भाव में शत्रुहत्ता, योगिराज व अरिष्ट नाशक बनाते हैं। सप्तमेश नवं भाव में उच्च के मंगल स्त्री सुख में परिपूर्ण व रमणियों के साथ रमण करने वाले बनाते हैं। इनकी आठ रानियां रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवंती, सत्या, कालिंदी, भद्रा, मित्रबिन्दा व लक्ष्मणा थीं। साथ ही राहू सप्तम में होने से नरकासुर के चंगुल से छुड़ाई 16000 राजकुमारियों ने भी इन्हें ही अपना पति माना।
अष्टमेश सहज भाव में सहोदर रहित करते हैं।इनके कोई भी सहोदर जीवित नहीं बचा। बलराम से इनके सामान्य सम्बन्ध थे। भाग्येश शनि के छठे भाव में उच्च का होकर भी इन्हें रणछोड़दास बनाया। वहीँ दशमेश छठे भाव में जाकर आजीवन शत्रुओं द्वारा परेशान कराते रहे।
बाल्यावस्था भी तकलीफ में गुजारी, एकादशेश गुरु जहां लक्ष्मीवान व सुखी कर रहे हैं, तो व्ययेश उच्च के मंगल में दान की प्रेरणा व लम्बी-लम्बी यात्राएं इन्हें आजीवन कराते रहे। ऐसे योगेशेवर कृष्ण की आराधना हमें नित्य प्रति करने से लाभ होता है। जहां इनका पूजन होता है, वहां समृद्धि, सुख, व समस्त वैभव मौजूद रहते हैं।
उच्च के गृह
भगवान श्रीकृष्ण की कुंडली में पांच ग्रह- चन्द्र, गुरु, बुध, शनि और मंगल उच्च के हैं। सूर्य और शुक्र स्वक्षेत्री हैं।
लग्न में केतु, चंद्रमा के साथ होने से ग्रहण योग बन रहा है।
योगादियोग मृदंग योग, वीणा योग, पर्वत योग, लक्ष्मी योग, विशिष्ट योग, यशस्वी योग, भास्कर योग और ग्रहण योग बने थे। श्रीकृष्ण की कुंडली में ग्रहण योग को छोड़कर सभी अन्य योग शुभ थे।