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यहां की होली में प्रेम में ऐसा हो जाता है

दरअसल बरसाना की लठामार होली भगवान कृष्ण के काल में उनके द्वारा की जाने वाली लीलाओं की पुनरावृत्ति जैसी है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 04 Mar 2017 01:02 PM (IST)Updated: Mon, 06 Mar 2017 10:16 AM (IST)
यहां की होली में प्रेम में ऐसा हो जाता है
यहां की होली में प्रेम में ऐसा हो जाता है

 ब्रज के बरसाना गाँव में होली एक अलग तरह से खेली जाती है जिसे लठमार होली कहते हैं। ब्रज में वैसे भी होली ख़ास मस्ती भरी होती है क्योंकि इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है इस दिन नंद गाँव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना के पश्चात नंदगांव के पुरुष होली खेलने बरसाना गांव में आते हैं और बरसाना गांव के लोग नंदगांव में जाते हैं।

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 होली का त्योहार आने में भले ही अभी दिन बाकी हों लेकिन कृष्ण की नगरी नंदगांव, बरसाना, मथुरा, वृंदावन में हफ्ते भर पहले से ही रंग, अबीर, गुलाल उड़ने लगे हैं। गोपियों संग होली मनाने पहुंचे हुरियारों पर कहीं लाठियां बरसीं तो कहीं उड़े रंग-गुलाल। बरसाने की लट्ठमार होली फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंदगांव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गांव बरसाने जाते हैं और बरसाना गांव के लोग नंदगांव में जाते हैं। इन पुरूषों को हुरियारे कहते हैं।

माना जाता है कि कृष्ण अपने सखाओं के साथ राधारानी और उनकी सखियों से होली खेलने पहुंच जाते थे और उनके साथ ठिठोली करते थे। इस पर राधारानी और उनकी सखियां ग्वाल बालों पर डंडे बरसाया करती थीं। ऐसे में लाठी-डंडों की मार से बचने के लिए ग्वाल वृंद भी ढ़ालों का प्रयोग किया करते थे जो धीरे-धीरे होली की परंपरा बन गई।
मथुरा-व़ंदावन, नंदगांव और बरसाने में आज भी इस परंपरा का निर्वहन उसी रूप में किया जाता है। और लट्ठमार होली मनायी जाती है। जब नाचते झूमते लोग गांव में पहुंचते हैं तो औरतें हाथ में ली हुई लाठियों से उन्हें पीटना शुरू कर देती हैं और पुरुष खुद को बचाते भागते हैं। लेकिन खास बात यह है कि यह सब मारना पीटना हंसी खुशी के वातावरण में होता है। यह लट्ठमार होली आज भी बरसाना की औरतों-लड़कियों और नंदगांव के आदमियों-लड़कों के बीच खेली जाती है।

 दरअसल बरसाना की लठामार होली भगवान कृष्ण के काल में उनके द्वारा की जाने वाली लीलाओं की पुनरावृत्ति जैसी है। माना जाता है कि कृष्ण अपने सखाओं के साथ इसी प्रकार कमर में फेंटा लगाए राधारानी तथा उनकी सखियों से होली खेलने पहुंच जाते थे तथा उनके साथ ठिठोली करते थे जिस पर राधारानी तथा उनकी सखियां ग्वाल वालों पर डंडे बरसाया करती थीं। ऐसे में लाठी-डंडों की मार से बचने के लिए ग्वाल वृंद भी लाठी या ढ़ालों का प्रयोग किया करते थे जो धीरे-धीरे होली की परंपरा बन गया। उसी का परिणाम है कि आज भी इस परंपरा का निर्वहन उसी रूप में किया जाता है। जब नाचते झूमते लोग गांव में पहुंचते हैं तो औरतें हाथ में ली हुई लाठियों से उन्हें पीटना शुरू कर देती हैं और पुरुष खुद को बचाते भागते हैं। लेकिन खास बात यह है कि यह सब मारना पीटना हंसी खुशी के वातावरण में होता है। औरतें अपने गांवों के पुरूषों पर लाठियां नहीं बरसातीं. बाकी आसपास खड़े लोग बीच बीच में रंग बरसाते हुए दिखते हैं।

इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग बरसाना आते हैं। यह लट्ठमार होली आज भी बरसाना की औरतों, लड़कियों और नंदगांव के आदमियों, लड़कों के बीच खेली जाती है।


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