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क्‍या यह भी झेलती हैं मासिकधर्म की पीड़ा

क्‍या आप जानते है धरती ( भूदेवी )भी यहां झेलती हैं मासिकधर्म की पीड़ा । ओडिशा में धरती भी तीन दिनों के लिए रज:स्वला होती है और इन तीन दिनों के दौरान इस राज्य में कृषि-संबंधित सभी कामकाज को पूर्णत: निषिद्ध कर दिया जाता है। यहाँ की पौराणिक और धार्मिक

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 27 Nov 2015 11:04 AM (IST)Updated: Sat, 28 Nov 2015 01:01 PM (IST)
क्‍या यह भी झेलती हैं मासिकधर्म की पीड़ा

क्या आप जानते है धरती ( भूदेवी )भी यहां झेलती हैं मासिकधर्म की पीड़ा । ओडिशा में धरती भी तीन दिनों के लिए रज:स्वला होती है और इन तीन दिनों के दौरान इस राज्य में कृषि-संबंधित सभी कामकाज को पूर्णत: निषिद्ध कर दिया जाता है। यहाँ की पौराणिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देव 'विष्णु(जगन्नाथ) की पत्नी भूदेवी आषाढ के महीने में तीन दिनों के लिए जब रज:स्वला होती है , उस दौरान ही यह त्योहार रज, ओडिया भाषा में जिसे रजो उच्चारित किया जाता है,बहुत-ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

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रज शब्द ही रजस्वला अर्थात् मासिक-धर्म से लिया गया है,इस दौरान विशेषकर ओडिशा के तटीय क्षेत्रों , पुरी ,कटक,बालासोर और ब्रह्मपुर आदि में रजपर्व मनाया जाता है। विशेष बात यह है कि आषाढ़ में यह त्योहार रजो लड़कियों और महिलाओं के बीच विशेष उल्लास-से मनाया जाता है। एक अच्छी बात इस दौरान स्थानीय लोगों के बीच दिखाई देती है कि तीन दिवसीय 'रजोÓ के दौरान घर की स्त्रियों और लड़कियों को घरेलू कामकाज-से पूरी तरह-से स्वतंत्र कर दिया जाता है। कुँवारी लड़कियाँ पैरों में आलता डालकर , नए कपड़े और नए आभूषणों से सज-धजकर घरों-से बाहर निकलती हैं और पेड़ों की मज़बूत डालियों-से झूले बाँधकर खूब झूला झूलती हैं,लूडो खेलती हैं या ताश खेलती हैं। अर्थात् स्थानीय लोगों के लिए सभी तरह की मस्ती का नाम है यह 'रजोपर्वÓ। स्त्रियों को लगता है कि चलो इस त्योहार के बहाने ही तीन दिनों के लिए, हर दिन के घर के कामकाज से आज़ादी तो मिली , क्योंकि इस दौरान घर को संभालने की जिम्मेदारी घर के पुरूषों पर होती है,भले ही रसोई हो या साफ़-सफ़ाई,सबकुछ पुरूष ही संभालते हैं। इस 'रजपर्वÓ के दौरान धरती पर नंगे पैर चलने से सख्त मनाही होती है, क्योंकि भूदेवी इस समय मासिकधर्म की पीड़ा झेल रही होती हैं। कुल मिलाकर पूरे पाँच दिनों तक 'रजोÓ की धूम रहती है, रजो के आरंभ होने के पहले'सोजा-बोजा (साज-बाज) होता है , अर्थात् जिसमें तैयारी के लिए सजावट का खासा ध्यान रखा जाता है।

पहले दिन को 'पहिली रजो के नाम से जाना जाता है, जिसमें यह माना जाता है कि यह धरा के मासिक धर्म का पहला दिन है,इस दौरान कुँवारी लड़कियों को अपने नंगे पाँव धरती पर नहीं रखना होता है। इस 'पहिली रजोÓ के बाद दूसरा दिन, 'भूदेवीÓ के रज:स्वला का दूसरा दिन , मिथुन संक्राति/रजो संक्रांति (वास्तविक रजो) कहलाता है। और अंत में तीसरे दिन मनाया जाता है,शेष रजो/भू दहा/बासी रजो। लगभग सोजा-बोजा से ही चल रहे इस त्योहार का अंत होता है. वासुमति गाधुआ अर्थात् धरा/भूदेवी का स्नान। इस समय घरों में पहले से ही तैयारी के दौरान तरह- तरह के (पीठा ) पकवान तैयार किए जाते हैं,जिनमें प्रमुखता से शामिल होता है,पोडापीठा और चाकुली पीठा,जो चावल के पाउडर और इन तटीय क्षेत्रों में बाहुल्यता से उपलब्ध नारियल से बनाया जाता है। इस दौरान डोली ( अमूमन हम जिसे चरखे के रूप में जानते हैं) में बैठकर खेला जाता है। 'रजो उत्सव' के दौरान ही राम डोली, चरखी डोली,पता डोली और'डंडी डोली का भी लोग मज़ा लूटते हैं, इसपर बैठकर घूमते हैं और तब रजोÓ के विभिन्न प्रचलित लोकगीत भी महिलाएँ और छोटी-छोटी बच्चियाँ गाती हैं।

धरती प्रकृति की ओर से स्त्री जाति का ही प्रतिनिधित्व करती है और शायद यही वज़ह है कि 'भूदेवीÓ के भी आषाढ़ माह में रजस्वला होने की मान्यता बनी है । और ऐसा है , तो फिर स्त्री के रजस्वला होने से जुडी पवित्रता -अपवित्रता की मान्यता इस पर्व से भी स्पष्ट होता है. यहाँ धरती और स्त्री एकाकार हो जाती है । अपनी भाषा में भी हम उत्पत्ति -अक्षम स्त्री और धरती को वन्ध्या और सक्षम को उर्वरा कहते हैं । हम उत्पत्ति ( संतान और फसल ) में अक्षम धरती और स्त्री दोनो को ही उपेक्षित कर देते हैं . कोशिश की जाती है कि किसी उपाय से धरती और स्त्री ' फलवती' हों , यानी स्त्री संतान पैदा करे और धरती फसल। और यदि शादी के बाद पति संतानोत्पत्ति में अक्षम हो या नपुंसक हो, तब भी लडकी पर ही दवाब होता है संतानोत्पत्ति का, या यह सिद्ध करने का कि वह ' वन्ध्या' नहीं है। साफ़ है कि स्त्री हो या धरा , उसका अस्तित्व केवल उसके बच्चे जनने से ही है ।

भूदेवी के रज:स्वला होने के पश्चात् मानसून की बारिश होते ही धरती में फसल/बीज बोए जाते हैं। 'भूदेवीÓ के रज:स्वला होने के बाद भू रूपी मादा को भी किसान रूपी उस नर का इंतज़ार होता है, जिसके बीजारोपण किए बगैर उसके गर्भ-से फसल ले पाना असंभव है , और इस 'रजपर्वÓ के बाद मान लिया जाता है कि अब यह भूदेवी पूर्णत: सक्षम है , अथवा तैयार है कि किसान चाहे तो अपनी फसल इस धरा से ले सकता है।

हिंदू धर्म की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो भी महिला रजस्वला होती है, उसके पाँचवे दिन बालों को धोकर नहाने के पश्चात् ही पूरी तरह से सभी घरेलू कामों और पूजापाठ के लिए उसे शुद्ध,पवित्र और योग्य माना जाता है और रसोईघर के सभी कामों के लिए उसे पुन: मान्यता मिल जाती है। ठीक उसी तरह-से इस 'रजपर्वÓ को आषाढ़ माह में मनाए जाने के पीछे भी यह तथ्य साफ़ नजऱ आता है कि आषाढ़ के महीने में बारिश होती है और इसी मानसून के बारिश के पश्चात् रज:स्वला स्त्रियों की तरह अच्छे-से 'धरा/भूदेवीÓ की भी शुद्धिकरण की प्रक्रिया हो जाती है,साथ ही इसी महीने-से हलों को भी धरती में उतारकर कृषि की प्रक्रिया का आरंभ भी हो जाता है ।


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