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इस मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं

देश के 52 शक्तिपीठों में कालीघाट की मां काली अन्यतम हैं। ऐसी मान्यता है कि कालीघाट में मां सती के दाहिने पांव की चार अंगुलियां गिरी थीं। यहां रोज मां काली के लिए 56 भोग लगाया जाता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 17 Mar 2017 11:36 AM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 12:33 PM (IST)
इस मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं
इस मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं

 यूं तो जगतजननी मां भगवती के सभी शक्तिपीठ अपनी धार्मिक आस्था और विलक्षणता के लिए विश्वप्रसिद्ध है। पर, 'जय काली कलकत्ते वालीÓ की बात ही निराली है। कोलकाता की दक्षिण छोर पर स्थित कालीघाट की मां काली की अलौकिकता और उनके प्रति आस्था व विश्वास से लबरेज  है। 

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कई विविधताओं को सहेज इस कोलकाता शहर के उत्पत्ति व नामकरण को ही मां काली का आशीर्वाद प्राप्त है। शक्ति के उपासकों की आस्था से लबरेज कोलकाता के जनजीवन पर माता काली की छत्रछाया को सहज ही महसूस किया जा सकता है। देश के 52 शक्तिपीठों में कालीघाट की मां काली अन्यतम हैं। ऐसी मान्यता है कि कालीघाट में मां सती के दाहिने पांव की चार अंगुलियां गिरी थीं। पुराणों में काली को शक्ति का रौद्रावतार माना जाता है और प्रतिमा या तस्वीरों में देवी को विकराल काले रूप में गले में मुंडमाला और कमर में कटे हाथों का घाघरा पहने, एक हाथ में रक्त से सना खड्ग और दूसरे में खप्पर धारण किए, लेटे हुए भगवान शंकर पर खड़ी जीह्वा निकाले दर्शाया जाता है। लेकिन, कालीघाट मंदिर में देवी की प्रतिमा में मां काली का मस्तक और चार हाथ नजर आते हैं। यह प्रतिमा एक चौकोर काले पत्थर को तरास कर तैयार की गई है। यहां लाल वस्त्र से ढकी मां काली की जीभ काफी लंबी है जो सोने की बनी हुई है और बाहर निकली हुई है। दांत सोने के हैं। आंखें तथा सिर गेरूआ सिंदूर के रंग से बना है और माथे पर तिलक भी गेरूआ सिंदूर का है। प्रतिमा के हाथ स्वर्ण आभूषणों और गला लाल पुष्प की माला से सुसज्जित है। श्रद्धालुओं को प्रसाद के साथ सिंदूर का चोला दिया जाता है।
सदियों पूराना है कालीघाट के काली मंदिर का इतिहास
15वीं सदी से 18वीं सदी तक की बांग्ला किताबों और सरकारी दस्तावेजों में इस काली मंदिर का जिक्र है। 1742 में अंग्रेेजों द्वारा बनवाए गए गाइड-मैप में कालीघाट मार्ग दर्शाया गया है। वर्तमान मंदिर करीब 200 वर्ष पुराना है। 
ऐसे हुआ मंदिर का निर्माण 
किंवदंती के मुताबिक बरीशा गांव के जमींदार शिवदेव राय चौधरी ने सन् 1809 में इस मंदिर का निर्माण शुरू किया और उनके पुत्र रामलाल व भतीजे लक्ष्मीकांत ने इसे पूरा किया। कहा जाता है कि भागीरथी नदी जिसे (अब आदि गंगा कहते हैं) के किनारे एक तेज प्रकाश-पुंज नजर आया था। प्रकाश-पुंज को खोजने पर काले पत्थर का टुकड़ा मिला, जिस पर दाहिने पैर की अंगुलियां अंकित थीं। उस चमत्कारी शिलाखंड की देवी रूप में उपासना की जाने लगी। इस आठचाला मंदिर में पक्की माटी का काम काल के थपेड़ों ने नष्ट कर दिया है। बाद में संतोष राय ने इसका जीर्णोद्धार कराया। 1971 में मंदिर का वर्तमान प्रवेश द्वार व तोरण का निर्माण बिड़ला ने कराया था। 
काली मां के साथ और भी देवी-देवताओं की है प्रतिमा 
काली मंदिर के सामने नकुलेश्वर भैरव मंदिर है, जो 1805 में बना था। यहां स्थापित स्वयंभूलिंगम भी काली की प्रतिमा के पास ही नदी किनारे मिला था। मां काली के अलावा शीतला, षष्ठी और मंगलाचंडी के भी स्थान है। वर्तमान में स्थित मंदिर के समीप ही एक जलाशय है जहां मां सती के अंग गिरे थे। आज भी वह जलाशय मौजूद है। यहां मौजूद बरगद का वृक्ष भी प्राचीन है। इसे संरक्षित रखा गया है। इस जलाशय में स्नान करने से पुण्य मिलता है। अत: इस तालाब में स्नान करने के लिए भी श्रद्धालुओं की लंबी कतार लगती है।
सच्चे मन से मांगी मुरादें होती हैं पूरी
मंदिर के पुजारी का कहना है कि यह मंदिर कोलकाता से भी प्राचीन है। यहां विराजमान देवी में बड़ी जाग्र्रत हैं। यहां आने वाले हर भक्त की सच्ची मनोकामना पूरी होती है। यहां देशभर से श्रद्धालु तो आते ही हैं, विदेशों से भी लोग देवी का दर्शन-पूजन करने आते हैं। सच्चे मन से पूजा करने वालों की मां मनोकामना पूरी करती हैं।
कुछ अनोखी परंपरा 
पुजारी ने इस मंदिर की कुछ खास बातें बताई। उन्होंने बताया कि बंगाल में काली पूजा के दिन जहां घरों एवं मंडपों में देवी काली की आराधना होती है, वहीं इस शक्तिपीठ में लक्ष्मीस्वरूपा देवी की विशेष पूजा-अर्चना होती है। दुर्गापूजा के दौरान षष्ठी से दशमी तक मंदिर में भक्तों की भीड़ उमड़ती है। दुर्गोत्सव में दशमी को सिंदूर खेला के लिए इस कालीमंदिर में दोपहर 2 से शाम 5 बजे तक सिर्फ महिलाएं प्रवेश करती हैं। इस दौरान पुरुषों का प्रवेश वर्जित रहता है। यहां रोज मां काली के लिए 56 भोग लगाया जाता है। 
दर्शन की समय सूची 
मंगलवार और शनिवार के साथ अष्टमी को विशेष पूजा की जाती है और इस दिन भक्तों की भीड़ भी बहुत अधिक होती है। मंदिर प्रात : 4 बजे से रात्रि 11 तक खुला रहता है। दोपहर में मंदिर 2 से 4 बजे तक बंद कर दिया जाता है। इस अवधि में मां को भोग लगाया जाता है। सर्वप्रथम सुबह 4 बजे मंगल आरती होती है। श्रद्धालुओं के लिए यह मंदिर 5 बजे खोला जाता है। यहां नित्य पूजा सुबह 5.30 से 7 बजे तक, भोग दोपहर 2.30 से 3.30 बजे तथा संध्या आरती 6.30 से 7 बजे तक होती है। 

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