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यहां घटी थी रावण के जीवन की प्रमुख घटनाएंं

रावण को अपने काल का सबसे श्रेष्ठ विद्वान और तपस्वी माना गया है। ये बात अलग है कि उसके बुरे कर्मों के कारण उसकेे धर्म भी उसकी रक्षा नहीं कर पाया। रावण के बारे में अनेक ग्रंथों में व

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 15 Jul 2016 03:09 PM (IST)Updated: Sat, 16 Jul 2016 11:03 AM (IST)

रावण को अपने काल का सबसे श्रेष्ठ विद्वान और तपस्वी माना गया है। ये बात अलग है कि उसके बुरे कर्मों के कारण उसकेे धर्म भी उसकी रक्षा नहीं कर पाया। रावण के बारे में अनेक ग्रंथों में वर्णन मिलते हैं। रामायण में कुछ ऐसी जगहों का वर्णन मिलता है, जहाँ रावण के जीवन की प्रमुख घटनाए घटी है।

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महिष्मती नगर

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, जब राक्षसराज रावण ने सभी राजाओं को जीत लिया, तब वह महिष्मती नगर (वर्तमान में महेश्वर) के राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन को जीतने की इच्छा से उनके नगर में गया। उस समय सहस्त्रबाहु अर्जुन अपनी पत्नियों के साथ नर्मदा नदी में जलक्रीड़ा कर रहा था। रावण को जब पता चला कि सहस्त्रबाहु नहीं है तो वह युद्ध की इच्छा से वहीं रुक गया। नर्मदा की जलधारा देखकर रावण ने वहां भगवान शिव का पूजन करने का विचार किया।

जिस स्थान पर रावण भगवान शिव की पूजा कर रहा था, वहां से थोड़ी दूर सहस्त्रबाहु अर्जुन अपनी पत्नियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। सहस्त्रबाहु अर्जुन की एक हजार भुजाएं थीं। उसने खेल ही खेल में नर्मदा का प्रवाह रोक दिया, जिससे नर्मदा का पानी तटों के ऊपर चढ़ने लगा। जिस स्थान पर रावण पूजा कर रहा था, वह भी नर्मदा के जल में डूब गया। नर्मदा में आई इस अचानक बाढ़ के कारण को जानने रावण ने अपने सैनिकों को भेजा।

सैनिकों ने रावण को पूरी बात बता दी। रावण ने सहस्त्रबाहु अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। नर्मदा के तट पर ही रावण और सहस्त्रबाहु अर्जुन में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में सहस्त्रबाहु अर्जुन ने रावण को बंदी बना लिया। जब यह बात रावण के पितामह (दादा) पुलस्त्य मुनि को पता चली तो वे सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास आए और रावण को छोडने के लिए निवेदन किया। सहस्त्रबाहु अर्जुन ने रावण को छोड़ दिया और उससे मित्रता कर ली।

बैद्यनाथ

शिव पुराण के अनुसार, रावण भगवान शिव का भक्त था। उसने बहुत कठिन तपस्या की और एक-एक करके अपने मस्तक भगवन शिव को अर्पित कर दिए। उसकी इस तपस्या से शंकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए। उसके दस सर भगवान ने फिर जोड़ दिए। रावण ने भगवान से वरदान के रूप में भगवान शिव को अपने साथ लंका चलने की बात कही। भगवान शिव ने रावण की बात मान ली, लेकिन रावण के सामने एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि अगर रावण भगवान के शिवलिंग को रास्ते में कहीं भी जमीन पर रख देगा तो भगवान शिव उसी जगह पर स्थापित हो जाएंगे। रावण ने भगवान शिव की शर्त मान ली और शिवलिंग को लेकर लंका की ओर जाने लगा।

यह सूचना मिलते ही देवताओं में खलबली मच गई। यदि भगवान शिव लंका में स्थापित हो जाएंगे तो लंका को हरा पाना किसी के लिए भी असंभव हो जाता। ऐसे में रावण को कोई भी नहीं हरा पाता। इस परेशानी का हल निकालने के लिए सब विष्णु भगवान के पास पहुंचे। सभी देवताओं ने भगवान विष्णु से किसी भी तरह रावण को शिवलिंग लंका ले जाने से रोकने की प्रार्थना की।

देवताओं की प्रार्थना पर विष्णु भगवान् एक ब्राह्मण का वेश धारण करके धरती पर चले आए। साथ ही, वरूण देव ने रावण के पेट में प्रवेश किया। जैसे ही वरुण देव रावण के पेट में घुसे। रावण को बड़ी तीव्र लघुशंका लगी। लघु शंका करने के पहले रावण को शिवलिंग किसी के हाथ में देना था। तभी वहां से ब्राह्मण वेश में विष्णु भगवान गुजरे रावण ने उन्हें थोडी देर शिवलिंग पकड़ने का आग्रह किया। वह ख़ुद लघुशंका करने चला गया, लेकिन उसके पेट में तो वरुण देव घुसे हुए थे। रावण के बहुत देर तक न आने पर ब्राह्मण ने शिवलिंग को नीचे रख दिया। जैसे ही शिवलिंग नीचे स्थापित हुआ वरुण देव रावण के पेट से निकल गए।

रावण जब ब्राह्मण को देखने आया तो देखा कि शिवलिंग जमीन पर रखा हुआ है और ब्राह्मण जा चुका है। उसने शिवलिंग उठाने की कोशिश की, लेकिन शर्त के अनुसार, भगवान शिव उसी जगह पर स्थापित हो गए थे।। आखिर में क्रोधित होकर रावण ने शिवलिंग पर मुष्टि प्रहार किया जिससे वह जमीन में धंस गया। बाद में रावण ने क्षमा मांगी। कहते हैं वह रोज लंका से शिव पूजा के लिए बैद्यनाथ आता था। जिस जगह ब्राह्मण ने शिवलिंग रखा, वहीं आज शंकर भगवान का मन्दिर है, जिसे बैद्यनाथ धाम कहते हैं।

पंचवटी

पंचवटी नासिक जिला, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के निकट स्थित एक प्रसिद्ध पौराणिक स्थान है। यहां पर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता सहित अपने वनवास काल में काफी दिनों तक रहे थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, यहीं से लंका के राजा रावण ने माता सीता का हरण किया था।

रावण ने मारीच नाम के राक्षस को सीता हरण की योजना में शामिल किया। उसने सोने के हिरण का रूप धारण किया। सीताजी उस पर मोहित हो गईं। सीताजी ने रामजी को उस हिरण को लाने को कहा। बाद में राम के न लौटने पर लक्ष्मण उन्हें खोजने वन में गए। रावण साधु के वेष में आया और सीताजी का हरण करके ले गया। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मन्दिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

किष्किंधापुरी

एक बार रावण ने सुना कि किष्किंधापुरी का राजा बालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिए जा पहुंचा। बालि की पत्नी तारा,तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने रावण समझाया कि इस समय बालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिए गए हुए हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। अन्य कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है, जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिए, आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। साथ ही सुग्रीव ने रावण को बालि की ताकत और क्षमता के बारे में बताया और दक्षिण के तट पर जाने को कहा, क्योंकि बालि वहीं पर था।

सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुंचा। जहां बालि संध्या आरती कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप बालि पर आक्रमण कर दूंगा। बालि ने रावण को आते देख लिया, लेकिन वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मंत्रों का उच्चारण करता रहा। जैसे ही उसे पकडने के लिए रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, लेकिन बालि ने उसे पकड़कर अपनी कांख (बाजू) में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार बालि को अपने नखों से कचोटता रहा, लेकिन बालि ने उसकी कोई चिंता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिए रावण के मंत्री और सिपाही उसके पीछे शोर मचाते हुए दौड़े, लेकिन वे बालि के पास तक न पहुंच सके। इस प्रकार बालि रावण को लेकर पश्चिम सागर के तट पर पहुंचा। वहां उसने संध्योपासना पूरी की।

फिर वह दशानन को लिए हुए किष्किंधापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी कांख से निकालकर पूछा कि अब कहिए आप कौन हैं और किसलिये आये हैं? रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूं और आपके साथ युद्ध करने के लिए आया था। मैंने आपका अद्भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूं। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी मानकर एक-दूसरे से मित्रता कर ली।

कैलाश मानसरोवर

कहा जाता है कि एक बार रावण ने घोर तपस्या करने के बाद कैलाश पर्वत ही उठा लिया था। वह पूरे पर्वत को ही लंका ले कर जाना चाहता था। उस समय शिवजी ने अपने अंगूठे से पर्वत को दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया, तब वह अपनी भूल के लिए भगवान शिव से मांफी मागने लगा और उनकी स्तुति करने लगा। वही स्तुति आगे चलकर शिव तांडव स्रोत कहलाई। कैलाश मानसरोवर पर रावण के कई वर्षों तक तप करने का वर्णन भी ग्रंथों में मिलता है।


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