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सांस्कृतिक कला का अनुपम सौंदर्य है द्वारिकाधीश मंदिर

राजधिराज बाजार स्थित द्वारिकाधीश मंदिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला और सौंदर्य के लिए अनुपम है। ग्वालियर राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुलदास पारीख ने सन 1814-15 में इसका निर्माण कराया था। माना जाता है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए एक काजी और एक चतुर्वेदी की जमीन भी लेनी पड़ी

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 04 Sep 2015 12:43 PM (IST)Updated: Fri, 04 Sep 2015 12:52 PM (IST)


मथुरा राजधिराज बाजार स्थित द्वारिकाधीश मंदिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला और सौंदर्य के लिए अनुपम है। ग्वालियर राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुलदास पारीख ने सन 1814-15 में इसका निर्माण कराया था। माना जाता है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए एक काजी और एक चतुर्वेदी की जमीन भी लेनी पड़ी थी। काजी को जमीन के बराबर चांदी के सिक्के और मोती और चतुर्वेदी से झोली फैलाकर जमीन दान में मांगी थी।
श्रीद्वारिकाधीश मंदिर के निर्माता गोकुलदास पारीख बड़ौदा राज्य के सीनौर ग्राम निवासी थे। वह द्वारिकाधीश प्रभु के अनन्य भक्त थे। श्रीधारिकाधीश प्रभु के अनुग्रह से ही ग्वालियर प्रवासकाल में स्वप्नदर्शन हुआ और अपार संपत्ति के साथ श्रीद्वारिकाधीश प्रभु राजधिराज का देव विग्रह प्राप्त हुआ। वह इस विग्रह को लेकर मथुरा आ गए। पहले इस विग्रह को वृंदावन के भतोरपा बगीचा पर रखा गया। इसके बाद जूना मंदिर प्रयागघाट पर रखा गया। इस विग्रह के मंदिर के निर्माण के लिए मथुरा और वृंदावन के लोगों में जमकर बहस हुई। लॉटरी के माध्यम से मंदिर के मथुरा में बनने का निर्णय हुआ। यमुना किनारे स्थान की तलाश तो पूरी हो गई लेकिन इस जमीन में कुछ भाग एक काजी और एक चतुर्वेदी की जमीन का था। काजी ने शर्त रखी जितनी जमीन चाहिए उस हिस्से पर चांदी के सिक्के रखने होंगे। सिक्के गोल होने के कारण सिक्कों के बीच की जगह खाली रह जाती। इस खाली स्थल में चांदी के मोती भरे गए। चतुर्वेदी ने शर्त रखी की सेठजी दान मांगे तो वह जमीन दे देंगे। इस पर सेठजी ने झोली फैलाकर दान मांगा। इसके बाद मंदिर का निर्माण 1814-15 में प्रारंभ हुआ। पारीख जी की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचंद ने मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया। सन 1873 में मंदिर की रजिस्ट्ररी कराई गई। यह मंदिर पुष्टीमार्ग के आचार्य श्रीगिरधारीलाल महाराज कांकरोली वालों को भेंट किया गया। मंदिर के अधिकारी श्रीधर चतुर्वेदी बताते हैं कि प्रतिवर्ष सोने चांदी के ङ्क्षहडोले, अन्नकूट, जन्माष्टमी, नंदोत्सव, दीपावली, होली आदि आयोजन श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र रहते हैं।

भक्ति भाव से ही आ सकती है शांति

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द्वारिकाधीश मंदिर के अधिकारी श्रीधर चतुर्वेदी कहते हैं कि
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कर्म और शांति के मार्ग पर चलने का संदेश देती है।
भक्ति मार्ग पर चलकर ही देश में फैल रहे आतंकवाद, अशांति को दूर किया जा
सकता है। जन्माष्टमी संकल्प लेने का दिन हैं। देश की खुशहाली, शहर की
समृद्धि और परिवार के सुख के लिए संकल्प लेने का दिन है। भगवान श्रीकृष्ण
ने कर्म का संदेश दिया। अत: भगवान श्रीकृष्ण के बताए मार्ग पर सच्चे दिल से
कर्म करते चलिए। फल हमेशा अच्छा मिलता है।
भगवान श्रीकृष्ण अंधेरे को दूर कर उजाला लाने वाले हैं।

महाभिषेक के दर्शन से मिलते हैं हरि

श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान के सचिव
कपिल शर्मा कहते हैं कि भगवान जब अनेक अशेष गुणों को प्रकट करते हैं, तब वे
पूर्णतम कहे जाते हैं। जब सब गुणों को प्रकट न करके बहुत से गुणों को
प्रकट करते हैं तब पूर्णतर और जब उनसे भी कम गुणों को प्रकट करते हैं तो
पूर्ण कहलाते हैं। आदि वाराह पुराण, पदम पुराण, श्रीमद् भागवत आदि में
स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान के जन्म महोत्सव के दर्शन का पुण्य जो मथुरा में
है, वह अन्यत्र कहीं नहीं हैं। चूंकि भगवान ने जन्म की लीला मथुरा में की
हैं। भगवान के एसे दिव्य जन्म महाभिषेक के दर्शन करने मात्र से मनुष्य
जन्म-मरण के चक्र से छूटकर साक्षात हरि को प्राप्त करता है। अजन्मे के जन्म
महोत्सव का दर्शन, श्रवण और आयोजन परम् पुण्यप्रद है। भगवान श्रीकृष्ण ने
कंस के कारागार में जन्म लेकर न केवल वसुदेव-देवकी को बंधन मुक्त किया
बल्कि उस काल में पृथ्वी पर फैले समस्त अत्याचारियों का अंत कर दिया। उनका
अवतार दुष्टों का संहार, सज्नों का परित्राण, अधर्म का विनाश और धर्म का
अभ्युत्थान करने के लिए हुआ था।


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