जानें, कैसे इस सरस्वती मंदिर में आने से स्वर स्पष्ट हो जाता है
वाग्देवी, मां वीणापाणि, शारदा, विद्यादायिनी आदि नामों से स्मरण की जाने वाली मां वाणी अर्थात् सरस्वती जी के भारत में दो ही प्राचीन देवस्थल माने जाते हैं – पहला आंध्र प्रदेश में जो ऋषि वेद व्यास द्वारा बनाया गया था। आंध्र प्रदेश के इस बासर स्थित वैदिककालीन देवस्थल के बारे
वाग्देवी, मां वीणापाणि, शारदा, विद्यादायिनी आदि नामों से स्मरण की जाने वाली मां वाणी अर्थात् सरस्वती जी के भारत में दो ही प्राचीन देवस्थल माने जाते हैं – पहला आंध्र प्रदेश में जो ऋषि वेद व्यास द्वारा बनाया गया था। आंध्र प्रदेश के इस बासर स्थित वैदिककालीन देवस्थल के बारे में कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र युद्ध से निराश और उदास होकर ऋषि व्यास, उनके पुत्र शुकदेव जी एवं अन्य अनुयायी दक्षिण की ओर तीर्थयात्रा पर चल पड़े और गोदावरी के तट पर तप के लिए डेरा डाल दिया। उनके निवास के कारण वह स्थान व्यासर कहा जाने लगा जो कालांतर में बासर हो गया।
ऋषि व्यास नित्यप्रति जब स्नान करके आते तो गोदावरी की 3 मुट्ठी बालू लाते थे और 3 ढेर बना देते थे। बालू में हल्दी का भी घोल मिलाया गया और फिर धीरे-धीरे ये ढेर आकार लेते गये और इन्होंने तीन देवियों लक्ष्मी, शारदा एवं गौरी का रूप ले लिया। स्थानीय विश्वास के अनुसार यहीं वाल्मीकि ऋषि ने रामायण लेखन प्रारंभ करने से पूर्व मां सरस्वती जी को प्रतिष्ठिïत कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था। इस मंदिर के निकट ही वाल्मीकि जी की संगमरमर की समाधि बनी है।
बासर का यह मंदिर दक्षिण स्थापत्य कला का सुन्दर उदाहरण है। गर्भगृह, गोपुरम, परिक्रमा मार्ग आदि इसकी निर्माण योजना का हिस्सा हैं। मंदिर में केंद्रीय प्रतिमा सरस्वती जी की है साथ ही लक्ष्मी जी भी विराजित हैं। सरस्वती जी की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में 4 फुट ऊंची है। मंदिर में एक ग्रेनाइट का स्तम्भ भी है जिसमें अलग-अलग स्थान से संगीत के सातों स्वर सुने जा सकते हैं। मंदिर के प्रांगण में अयूडम्बरा वृक्ष भी है जिस पर दत्तात्रेय जी के पवित्र खड़ाऊं प्रतिष्ठित हैं। इनके स्पर्श से बांझ स्त्री के पुत्र प्राप्ति की कथा बासर में सर्वप्रचलित है।
यहां की विशिष्ट धार्मिक रीति अक्षरधना कहलाती है। इसमें बच्चों को विद्या अध्ययन प्रारंभ कराने से पूर्व अक्षराभिषेकम् हेतु यहां लाकर प्रसादस्वरूप हल्दी का पेस्ट चटाया जाता है। विश्वास है कि इससे उनके कंठ के सारे रोग समाप्त हो जाते हैं और स्वर स्पष्ट होता है। मंदिर के पूर्व में निकट ही महाकाली मंदिर है और लगभग एक सौ मीटर दूर एक गुफा है जहां नरहरि मालुका ने तप किया था। यहीं एक अनगढ़ सी चट्टान भी है जिसे वेदावथी कहा जाता है। कहते हैं कि इसके नीचे सीता जी के आभूषण रखे हैं। इसमें से भी प्रहार करने पर अलग-अलग स्थान से भिन्न-भिन्न स्वर निकलते हैं। बासर गांव में 8 ताल हैं जिन्हें वाल्मीकि तीर्थ, विष्णु तीर्थ, गणेश तीर्थ, पुथ्रा तीर्थ एवं शिव तीर्थ कहा जाता है। देवी नवरात्रि, दत्तात्रेय जयंती एवं वसंत पंचमी पर यहां विशाल उत्सव आयोजित होते हैं।
बागों से घिरा यह सुन्दर स्थल हैदराबाद से सड़क मार्ग से 220 कि.मी. एवं रेल मार्ग से 190 कि.मी. दूर है। यह अदिलावाद के मुथोल तालुका में निजामाबाद से 30 कि.मी. दूर स्थित है। माना जाता है कि छठी शताब्दी तक यह स्थल हिंदू तीर्थ बन चुका था। वर्तमान मंदिर चालुक्य राजाओं द्वारा बनवाया गया। मुगल आक्रांताओं द्वारा ध्वस्त हो जाने पर 17वीं शताब्दी में नंदागिरी के सरदार द्वारा इसका पुनर्निर्माण कराया गया। वसन्त पंचमी पर यहां लाखों की भीड़ होती है और देश के कोने-कोने से श्रद्धालु विद्या की देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं।
सरस्वती जी का दूसरा प्राचीन मंदिर कश्मीर में है। कश्मीर घाटी संस्कृत भाषा, साहित्य, औषधि, नक्षत्र, विज्ञान, दर्शन, धर्म, कानून, संगीत, कला एवं स्थापत्य कला के विकास का केंद्र रही है और इसका कारण श्रद्धालु इस स्थल पर शारदा पीठ का होना मानते हैं। दक्षिण भारत के कर्मकांडी ब्राह्मïण तो प्रात: शैया छोड़ते ही मां शारदा का ‘नमस्ते शारदा देवी कश्मीर मंडल वासिनी’ कहकर स्मरण करते हैं। कहते हैं कि कश्मीर के उत्तरी भूभाग में किशनगंगा घाटी के शीर्ष भाग में शारदा वन में मुनि शांडिल्य के समक्ष मां सरस्वती स्वयं प्रकट हुई थीं। शारदा महात्म्य में इस घटना का वर्णन है। इस वर्णन के अनुसार मातंग ऋषि के पुत्र शांडिल्य मुनि ने तप किया। ईश्वरीय प्रेरणा से वे वर्तमान कुपवाड़ा ज़िले के श्यामल स्थान पर गये वहां महादेवी ने उन्हें दर्शन दिये और शारदा वन में अपने शक्ति रूप में दर्शन देने का वादा करके गायब हो गयीं। मुनि वहां से कृष्णानाग झरने पर पहुंचे। झरने में स्नान करने पर उनका आधा शरीर स्वर्ण रूप हो गया। कृष्ण नाग झरना हयाहोम के निकट ड्रैग गांव के ऊपरी भाग में है। स्थानीय निवासी इसे सोना-ड्रैग कहते हैं। वहां से शांडिल्य उत्तरी पहाडिय़ों पर चढ़े जहां दैवीय नृत्य देखकर वे अभिभूत हो गये। इस पहाड़ी चारागाह को रंगवाटिका कहा जाता था। वहां से किशनगंगा के किनारे चलकर वे गौतम ऋषि के आश्रम तेजावाना पहुंचे। राह में श्री गणेश के दर्शन हुए और तब शारदा वन में शारदा अपने तीनों रूपों शारदा, नारदा एवं वाग्देवी में प्रकट हुई। मुनि ने उनकी प्रार्थना की और सिरातिसिला में निवास करने का वादा लिया। पितरों ने मुनि शांडिल्य को आशीर्वाद देकर कहा कि अब उनका श्राद्ध करें। मुनि ने महासिंधु से जल लेकर पितरों का श्राद्ध किया। महासिंधु का आधा जल शहद में बदल गया। यह झरना अब मधुमती कहलाता है। इस स्थान पर सिंधु और मधुमती के संगम पर स्नान एवं श्राद्ध आज भी पापमोचक माना जाता है।
वह पवित्र स्थल जहां देवी प्रकट हुई एक पत्थर की चौकोर शिला से चिन्हित है। यह शिला 7 फुट लंबी, 6 फुट चौड़ी और आधा फुट मोटी है। मान्यता है कि इस शिला के नीचे ही कुंड या झरना है जहां से देवी प्रकट हुई। यही पत्थर आज मंदिर का पूजा गृह है। 22 फुट चौकोर अंदर का कमरा और धनुषाकार छत वाले इस मंदिर में प्रवेश द्वार पर कुछ सीढिय़ां हैं। द्वार के दोनों ओर 16 फुट ऊंचे एक ही पत्थर के बने दो स्तम्भ हैं। मंदिर में एक चतुर्भुजीय विशाल आंगन भी है। मुगलों के अवसान के बाद महाराजा गुलाब सिंह ने इसका पुनर्निर्माण कराया। कल्हण की राजतरंगणी (8वीं शताब्दी), अलवरूनी (10वीं शताब्दी), विल्हाना (11वीं शताब्दी), जैन साहित्यकार हेमचंद (1088-1172), जेनाराजा क्रोनिकल नकल एवं अबुलफजल ने इस मंदिर का जिक्र अपने-अपने साहित्य में किया है। आज यह मंदिर अच्छी हालत में नहीं है। किन्तु श्रद्धालुओं की श्रद्धा उन्हें आज भी हजारों की संख्या में इस मंदिर तक खींच लाती है।